जिस तरह प्रकृत्ति नियमों में बंधकर चलती है वैसे ही
यहां विचरने वाले जीव भी अपनी मूल प्रकृत्ति के साथ ही रहते हैं। इस प्रकृत्ति और
जीवन को बांधने वाले तत्वों का समझने वाला ही ज्ञानी है। सत्य के साथ जीवन बिताने
वाला कभी भी अपने अंदर किसी भी हालत में कष्ट का अनुभव नहीं करता।
आमतौर से मनुष्य का यह स्वभाव होता है कि वह अपनी
शक्ति, योग्यता तथा पराक्रम से अधिक वस्तु पाने की कामना करता
है। कई लोगों में प्रतिष्ठित हस्तियों की तरह महत्व पाने का लोभ पैदा होता
है। हम देखते भी हैं कि फिल्म और टीवी में
कथित सामाजिक धारावाहिकों में अनेक ऐसे पात्र सृजित किये जाते हैं जिनका आधार केवल
कल्पना ही होती है पर देखने वाले अनेक कमजोर मानसिकता वाले लोग वैसा ही जीवन जीने
का सपना देखते हैं। यही कारण है कि अनेक
लोग उलूल जुलूल हरकते कर मजाक का पात्र बनते हैं।
अनेक लोग तो अपनी हरकतों की वजह से जान भी गंवा बैठते हैं। उन्हें यह समझाना कठिन है कि जीवन और प्रकृत्ति
के नियम अलग ही है। मनुष्यों का समूह मूल रूप से इस प्रकृत्ति का है कि वह खास को
ही तवज्जो देता है और अपनी तरह आम आदमी की कभी प्रशंसा नहीं कर सकता।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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अयुक्त्तं स्वामिनो युक्त्तं युक्त्तं नीचस्य दूषणम्।
अमृतं राहवे मृत्युर्विषं शंकर भूषणम्।।
हिन्दी में भावार्थ-धन,
उच्च पद और बाहुबल के स्वामी
यानि समर्थ व्यक्ति का अनुचित कार्य भी उचित माना जाता है जबकि असमर्थ या छोटे
आदमी का बड़ा काम भी महत्वहीन माना जाता है। अमृत राहु के कंठ के लिये कंटक तो विष भगवान शंकर के लिये
आभूषण बन गया था।
आजकल हर बड़ा कार्य पैसे की दम पर ही होता है यही कारण
है कि लोग येनकेन प्रकरेण उसे कमाना चाहते हैं।
उन्हें उचित या अनुचित साधनों की चिंता नही होती। किसी ने अगर गलत काम कर पैसे कमा लिये तो वह
प्रतिष्ठित मान लिया जाता है। हमारे देश
में भ्रष्टाचार का रोना सभी रोते हैं पर कभी कोई आम आदमी अपने आसपास किसी धनिक के
भ्रष्ट होने पर उसके समक्ष प्रतिकूल
टिप्पणी करने का न साहस करता है न उसकी इच्छा ही होती है। सच बात तो यह है कि हमारे देश में धर्म, कर्म, कला, साहित्य तथा अन्य बड़े
कार्यक्रम बिना दो नंबर के धन के हो ही नहीं सकते पर लोग उसमें अधिक संख्या में
शामिल होते हैं। यह प्रदर्शन है वहां भीड़
जमा होती है जहां सादगी है वहां कोई नहीं जाता।
कहने का अभिप्राय यही है कि ज्ञान साधकों को हमेशा
अपनी चादर देखकर ही पांव फैलाने के सिद्धांत का पालन करते हुए यही मानना चाहिये कि
उनकी प्रतिष्ठा में इससे अधिक वृद्धि नहीं होगी। अगर वह कोई भला काम करते हैं तो
उन्हें उससे किसी प्रकार की प्रतिष्ठा पाने का मोह भी नहीं रखना चाहिए।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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