हमारे अध्यात्मिक महापुरुषों
की शिक्षा को भले ही प्राचीन मानकर भुला दिया गया हो पर वह उसके सूत्र आज भी
प्रासंगिक है। हम नये वातावरण में नये
सूत्र ढूंढते हैं पर इस बात को भूल जाते हैं प्रकृत्ति तथा जीव का मूल जीवन जिन
तत्वों पर आधारित है वह कभी बदल नहीं सकते। हमने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक स्तर पर अनेक परिवर्तन देखे हैं और कहते हैं कि संसार
बदल गया है। अध्यात्मिक ज्ञान साधक ऐसा
भ्रम कभी नहीं पालते। उन्हें पता होता है कि आजकल आधुनिकता के नाम पर पाखंड बढ़ गया
है। स्थिति यह हो गयी है कि आर्थिक, राजनीतिक साहित्यक, धार्मिक,
सामाजिक तथा कला संस्थाओं में ऐसे लोग
शिखर पुरुष स्थापित हो गये हैं जो समाज के सामान्य मनुष्य को भेड़ों की तरह समझकर
उनको अपना अहंकार दिखाते हैं। ऐसे लोग बात
तो समाज के हित की करते हैं पर उनका मुख्य
लक्ष्य अपने लिये पद, पैसा तथा
प्रतिष्ठा जुटाना होता है। स्थिति यह है
कि मजदूर, गरीब तथा बेबस को
भगवान मानकर उसकी सेवा का बीड़ा उठाते हैं और उनका यही पाखंड उन्हें शिखर पर भी
पहुंचा देता है। एक बार वहां पहुंचने के
बाद ऐसे लोग अहंकारी हो जाते हैं। फिर तो वह अपने से छोटे लोगों से सम्मान करवाने
के लिये कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।
संत कबीर कहते हैं कि
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जग में भक्त कहावई, चुकट चून नहिं देय।
सिष जोरू का ह्वै रहा, नाम गुरु का लेय।।
सामान्य
हिन्दी भाषा में भावार्थ-कुछ
मनुष्य संसार में भला तो दिखना चाहते हैं
पर वह किसी थोड़ा चूना भी नहीं देसकते। ऐसे
लोगों के मस्तिष्क में तो परिवार के हित का ही भाव रहता पर अपने मुख से केवल
परमात्मा का नाम लेते रहते हैं।
विद्यामद अरु गुनहूं मद, राजमद्द उनमद्द।
इतने मद कौ रद करै, लब पावे अनहद्द
सामान्य
हिन्दी में भावार्थ-विद्या
के साथ गुण का अहंकार तथा राजमद मनुष्य के
अंदर उन्माद पैदा कर देता है। इस तरह के
मद से मुक्त होकर ही परमात्मा का मार्ग मिल सकता है।
अनेक बुद्धिमान यह देखकर दुःखी होते हैं कि पहले समाज का भले
करने का वादा तथा दावा कर शिखर पर पहुंचने के बाद लोग उसे भूल जाते हैं। इतना ही
नहीं समाज के सामान्य लोगों की दम पर पहुंचे ऐसे लोग विकट अहंकार भी दिखाते
हैं। ज्ञान साधकों के लिये यह दुःख विषय
नहीं होता। पद, पैसे और
प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुंचा व्यक्ति उन्मादी हो ही जायगा यह वह जानते हैं। ऐसे
विरले ही होते हैं जिनको यह अहंकार नहीं आता।
जिनको अर्थ, राजनीति,
समाजसेवा, धर्म तथा कला के क्षेत्र में पहली बार शिखर मिलता है
तो उनके भ्रम का तो कोई अंत नहीं होता। उन्हें लगता है कि उनका पद तो उनके जन्म के
साथ ही जमीन पर आया था। उनमें यह विचार तक नहीं आता कि जिस पद पर वह आज आयें हैं
उस पर पहले कोई दूसरा बैठा था। ऐसे लोग
समाज सेवा और भगवान भक्ति का जमकर पाखंड करते हैं पर उनका लक्ष्य केवल अपने लिये
पद, पैसा और प्रतिष्ठा जुटाना ही
होता है।
सामान्य लोगों को यह बात समझ
लेना चाहिये कि उनके लिये ‘दाल
रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ’
जैसी नीति का पालन करने के अलावा कोई अन्य मार्ग नहीं होता। उन्हें
पाखंडियों पर अपनी दृष्टि रखने और उन पर चर्चा कर अपना समय बर्बाद करने से बचना
चाहिये।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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