शक्ति की पहचान किसी पर आक्रमण करने से नहीं वरन् सहनशीलता दिखाने
पर होती है। हमारे देश में थोड़ी थोड़ी बात पर विवाद होने पर भारी हिंसा हो जाती है।
इतना ही नहीं भाषा, जाति,
धर्म, तथा क्षेत्र के नाम पर बने समूहों में अनेक बार आपसी
संघर्ष हो जाते हैं। इन समूहों के शिखर
पुरुषों आपस में उठते बैठते हैं पर अवसर आने पर इस तरह लड़ते हैं जैसे कि उनका पूरा
जीवन ही अपने समूहों के कल्याण के लिये अर्पित हो। दरअसल यह उनका पाखंड होता है। इस तरह वह
विभिन्न समूहों को आपस में लड़ाकर आम जन की स्थिति कमजोर करते हैं। इससे वह डर जाता है और अपने ही शिखर पुरुषों के
प्रति वफादार बना रहता है। ऐसे शिखर पुरुष
हमेशा ही ‘फूट डालो और राज्य करो’
कूटनीति का सहारा लेते हैंे। वह जानते हैं कि लोगों में अपनी जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र को लेकर एक विशेष प्रकार का पूर्वाग्रह रहता है और वह
अपने समूहों के सम्मान का मिथ्या अहंकार पालते हैं। समूहों के अंतर्गत भले ही सदस्यों के आपसी
विवाद होते हैं पर किसी अन्य समूह के सदस्य से विवाद हो जाये तो वह सामूहिक संघर्ष
में बदलने का प्रयास इन्हीं शिखर पुरुषों के माध्यम से किया जाता है। यही कारण है कि प्राचीन समय से भारत एक विभाजित
राष्ट्र रहा। राजाओं के मध्य छोटी छोटी
बातों पर संघर्ष होते रहते थे जिसके कारण धीरे धीरे विदेशी आक्रांता यहां स्थापित
होते गये।
हमारे देश में अहिंसा के सिद्धांत का प्रचार अनेक महापुरुषों ने
किया है। इसका कारण यह है कि प्राचीन काल में इस तरह के हिंसक सामूहिक संघर्ष होते
रहे हैं। खासतौर से जब भाषा, संस्कृति और धर्म एक हों पर क्षेत्रों के राजा
प्रथक हों तब लोगों के बीच इस तरह के विवाद होते ही रहे होंगे। राजसी प्रवृत्ति
अहंकार के भाव को जन्म देती है और वही हिंसा के परिणाम की सृजक है। अहंकार वश आदमी अपने ही समूह में दूसरे
लोगों को अपने आगे कुछ नहीं समझता और
सामूहिक विषय हो तो एक समूह दूसरे को अपने से हेय प्रमाणित करने के लिये पूरी शक्ति
लगा देता है। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्तिगत और
सामूहिक रूप से एक दूसरे को अपमानित करने
का प्रयास का अवसर मिलने पर उसका उपयोग करने से
कोई नहीं चूकता। यही कारण है कि हमारे देश की छवि ऐसे संघर्षों के कारण
विश्व में कभी अच्छी नहीं रही।
विदुरनीति में कहा गया है कि
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आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः।
आक्रोष्टारं निर्दहति सुकुतं चास्य विन्दवि।।
हिन्दी में भावार्थ-कोई मनुष्य दूसरे के आक्रोशित वचन बोलने पर
भी उसे क्षमा कर दे तो रुका हुआ प्रतिआक्रोश उस दूसरे व्यक्ति को जला
डालता है। उसके सारे पुण्य नष्ट हो जाते हैं।
नाक्रोशी स्यान्नवमानी परस्य मित्रद्रोही नोत
नीचोपसेवी।
न चाभिमानी न च हीनवृत्तो रूक्षां वांच रुषर्ती
वर्जयीत।।
हिन्दी में भावार्थ-दूसरे के प्रति न आक्रोशित वचन कहें न किसी का
अपमान करें। न मित्रों से द्रोह करें तथा नीच पुरुषों की कतई सेवा न करें। सदाचार
से हीन एंव अभिमान न हो। रुखी तथा रोष भरी वाणी का परित्याग करें।
हमारे देश में आज भी हालत कोई बेहतर नहीं है। राजशाही की बजाय लोकतंत्र की व्यवस्था स्थापित
हो गयी पर इसके बावजूद सामूहिक संघर्ष होते रहते हैं। इसका कारण यही है कि लोग मौका मिलने पर अपना आक्रोश तो व्यक्त करते हैं पर दूसरे का
समझ नहीं पाते। एक आक्रोशित वचन कहता है
तो दूसरा उससे भी ज्यादा आक्रामक होकर बोलता है।
इस प्रवृत्ति का त्याग कर देना चाहिये।
जब कोई एक आदमी के साथ दूसरा बदतमीजी करता है और वह खामोश रहता है तो
बदतमीज आदमी को ही उसका पाप पीछे लगकर दंड देता है। हालांकि दूसरे का अपमान झेलने में सहनशीलता की
शक्ति होना आवश्यक है। यह शक्ति बाहर प्रत्यक्ष प्रहार नहीं करती वरन् अप्रत्यक्ष
रूप से इसका प्रभाव दिखाई देता है।
इस क्षमा प्रवृत्ति के साथ ही
यह भी निश्चय करना चाहिये कि कभी किसी का अपमान नहीं करेंगे। न ही मित्रों
के साथ विश्वासघात करेंगे और न ही नीच पुरुषों के सेवा करेंगे तो जो अंततः समाज के
लिये घातक होते हैं। इस तरह हम समाज के
सुधरने की बजाय स्वयं ही सुधर जायें यही हमारे लिये अच्छा है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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