कहा जाता है कि जैसा
खायेंगे अन्न, वैसा ही होगा
मन। दरअसल इस कहावत का आशय शब्दिक,
लाक्षणिक तथा व्यंजना तीनों विधाओं में
लिया जाना चाहिये। अन्न का शाब्दिक आशय तो
गेहुं, चावल तथा दालों सहित उन
तमाम तरह के पदार्थों से है जो प्रकृत्ति से प्रदत्त हैं। लाक्षणिका रूप से देखने
पर लगता है कि अगर इन अन्नों के उत्पादन की गुणवत्ता में कमी है तो सेवन किये
जाने पर वह देह को कम पौष्टिकता प्रदान
करते हैं। गुणहीन अन्न अधिक खाने पर भी पाचक नहीं होता और पाचक अन्न कम खाने पर भी
अधिक शक्ति देता है। उसी तरह आशय व्यंजना विधा में यह कहा जा सकता है कि अन्न से
बने भोज्य पदार्थों का उद्गम स्थल भी अत्यंत महत्व रखता हैै। जहां भोजन आचरणहीन,
लोभी तथा दुष्ट व्यक्ति के माध्यम से
प्रस्तुत हो उसका सेवन करने से मनोवृत्ति विषाक्त हो जाती है।
हमारे यहां समाज में आचरण,
विचार तथा व्यवहार का स्तर देखने के
बजाय लोग केवल पैसे की उपलब्धि देखने लगे हैं।
दूसरी बात यह भी है कि सिकुड़ते हुए पारिवारिक दायरों तथा जीवन में
व्यक्तिगत संघर्ष ने लोगों के पास समाज की चारित्रिक स्थिति से मुंह फेरने के लिये
विवश कर दिया हैं। वह मित्रों के संग्रह
के लिये जूझते हैं पर स्वयं किसी के स्वयं हितैषी बनने को तैयार नहीं है। फिर
पार्टियों तथा पिकनिक के दौर नियमित हो गये हैं जिसमें लोग केवल जान पहचान के आधार
पर शमिल होते हैं। यह जानने का कोई प्रयास नहीं करता कि उनके सहभागियों के घन का
स्तोत्र क्या हैं? जहां मिल जाये
खाना वहीं चला जाये जमाना वाली स्थिति है। भोजन के स्तोत्र की अज्ञानता ने आचरण और
व्यवहार के प्रति उदासीनता का भाव पैदा किया है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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मत्तक्रुद्धातुराणां च न भुञ्जति कदाचन।
केशकीटावपन्नं च पदा स्पृष्टं च कामतः।।
भ्रुणघ्रावेक्षितं चैव संस्पृष्टं चाप्यदक्यया।
पतत्रिणाऽवलीढं च शुना संस्पृष्टंमेव च।।
हिन्दी में
भावार्थ- विक्षिप्त, क्रोधी और रोगी व्यक्ति के लिये रखा, बालों तथा कीड़े पड़ जाने से दूषित, खाने के लिये अनुचित मानकर फैंकने के लिये रखा गया, जिसे भ्रुण हत्यारों ने देखा हो तथा जिसे पक्षियों ने
चखा हो, ऐसा पदार्थ कभी सेवना
नहीं करना चाहिये।
राजान्नं तेज आदत्ते शूद्रान्नं ब्रह्मवर्चसम्।
आयुः सुवर्णकारान्नं यशश्चर्मावकर्तिनः।।
हिन्दी में
भावार्थ-राजा का अन्न खाने
से तेज और निम्न आचरण करने वाले व्यक्ति का अन्न खाने से विद्या के साथ ही यश की
भी हानि होती है।
हमारे यहां सामान्य लोगों को
विशिष्ट लोगों के घर मेहमाननवाजी करने का सपना हमेशा रहता है। खासतौर से राजसी शिखर पर बैठे लोगों के यहां
जाने के लिये लोग लालायित रहते हैं।
मनुस्मृति के अनुसार राजा का अन्न खाने से तेज का नाश होता है। इसका आशय
यही है कि जब कोई किसी राजपुरुष के यहां भोजन करेगा तो उसके सामने नतमस्तक होना भी
पड़ेगा इससे मन के साथ ही ज्ञानेंद्रियां भी शिथिल होती हैं। उसी तरह हम देख रहे हैं कि कन्या भ्रुण हत्या
रोकने का अभियान हमारे देश में इसलिये चल रहा है क्योंकि उसके कारण जनसंख्या में
लिग का अनुपात बिगड़ जाने से स्त्रियों के प्रति अपराध बढ़ते जा रहे हैं। कन्या
भ्रुण हत्या रोकने का अभियान भी चल रहा है
पर समाज से उसमें सहयोग नहीं मिल रहा है।
समाज में चेतना लाने के लिये यह आवश्यक है कि लोगों को अपना अध्यात्मिक
ज्ञान उनमें प्रचारित करना चाहिये। कन्या भ्रुण हत्या के लिये जिम्मेदार लोगों के
प्रति समाज जब उपेक्षा का भाव अपनायेगा तभी संभवत सफलता मिल पायेगी।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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