हमारे देश में धर्म को लेकर
अनेक भ्रम प्रचलित हैं जिनका मुख्य कारण धन के आधारित पर प्रचलित पंरपराऐं हैं
जिनको निभाने के लिये कथित धर्मभीरु अपना पूरा जीवन पर दाव पर लगा देते हैं। दूसरी
बात यह है कि आधुनिक शिक्षा पद्धति में डूबा समाज अध्यात्मिक ज्ञान से परे हो गया
है और उसके पास धर्म तथा भ्रम की पहचान ही नहीं रही। सच बात तो यह है कि हम जिस अपनी महान संस्कृति
और संस्कारों की बात करते रहे हैं उनका आधार वह पारिवारिक संबंध रहे हैं जो अब धन
के असमान वितरण के कारण कलह का कारण बनते जा रहे हैं। पहले एक रिश्तेदार के पैसा अधिक होता तो दूसरे के पास कम पर अंतर
इतना नहीं रहता था कि उसकी अनुभूति प्रत्यक्ष रूपे की जा सके पर कि अब असमान स्तर दिखने लगा है। इतना ही नहीं
स्तर में अंतर इतना अधिक आ गया है कि सद्भाव बने रहना कठिन हो गया है। एक
रिश्तेदार सामान्य जीवन जी रहा है तो दूसरा राजकीय कर्म से जुड़ने के कारण विशिष्ट
हो जाता है। ऐसे में रिश्तों में मिठास कम कड़वाहट अधिक हो जाती है।
महत्वपूर्ण बात यह कि हम
धर्म के नाम पर सभी एक होने का स्वांग करते हैं पर हो नहीं पाते। इसका मुख्य कारण
यह है कि हमारे देश में दो प्रकार के भारतीय धार्मिक लोग हैं। एक तो हैं लालची
दूसरे हैं त्यागी। एक बात निश्चित है कि
भारतीय धर्म से जुड़े लोग अधिकतर त्यागी होते हैं पर आधुनिक लोकतंत्र ने कुछ लालची
लोगों को आगे बढ़ने का मार्ग दिया है। समाज पर नियंत्रण करने वाली अनेक संस्थाओं
में कथित रूप से लालची लोगों ने कब्जा कर लिया है। यह लालची लोग एक तरफ से चंदा
लेते हैं दूसरी तरफ दान करने का स्वांग करते हैं। अंधा बांटे रेवड़ी आपु ही आपको दे
की तर्ज पर यह उस दान का हिस्सा भी अपने घर ही ले जाते हैं। धर्म, अर्थ, राज्य, कला, तथा शिक्षा के शिखर पर अनेक ऐसे कथित लोग
पहुंचें हैं जो भारतीय धर्म के रक्षक होने का दावा तो करते हैं पर होते महान लालची
हैं। सीधी बात कहें तो हमारे भारतीय धर्म को खतरा बाहर से नहीं बल्कि अपने ही
लालची लोगों से है। यह लालची लोग प्रचार
तंत्र में अपने समाज सेवक होने का प्रचार करते हैं जो जब बाहरी लोग उनका चरित्र
देखते हैं तो समस्त भारतीय धर्म के लोगों को वैसा ही समझते हैं जबकि हमारे हमारे
देश के अधिकतर लोग अपने धर्म के अनुसार
त्यागी होते हैं। लालची लोग सौ हाथों से
धन तो बटोरते हैं पर दान एक हाथ से भी नहीं करते।
ऐसे ही लोग धर्म के लिये सबसे बड़ा संकट हैं। अगर हम अपने देश में श्रम पर
आधारित करने वाले लोगों को देखें तो वह गरीब होने के बावजूद अपने आसपास के लोगों
की सहायता को तत्पर होते हैं। इसका वह प्रचार नहीं करते वरन् करने के बाद किसी प्रकार की फल याचना
भी नहीं करते। इसके विपरीत जिन लोगों ने
अपनी लालच की वजह से येन केन प्रकरेण समाज पर नियंत्रण करने वाली संस्थाओं पर
कब्जा किया है वह अपना स्तर बनाये रखने के लिये षडयंत्रपूर्वक काम करते हैं। इतना
ही नहीं धर्म का कोई एक नाम देना हमारे अध्यात्मिक दर्शन की दृष्टि गलत है वहीं वह
सभी धर्मों की रक्षा की बात कहते हुए भ्रमित भी करते हैं। सबसे बड़ी
इन लोगों ने सभ्रांत होने का रूप भी रख लिया है और अपने से नीचे हर व्यक्ति
को हेय मानकर चलते हैं।
अथर्ववेद में कहा गया है कि
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शातहस्त समाहार सहस्त्रस्त सं किर।
कृतस्य कार्यस्य चहे स्फार्ति समायह।।
हिन्दी में भावार्थ-हे
मनुष्य! तू सौ हाथों वाला होकर धनार्जन कर और हजार हाथ वाला बनकर दान करते हुए
समाज का उद्धार कर।
समाज में समरसता बनाये रखने
के लिये यह आवश्यक है कि शक्तिशाली तथा समृद्ध वर्ग कमतर श्रेणी के लोगों की
सहायता करे पर अब तो समाज कल्याण सरकार का विषय बना दिया गया है जिससे लोग अब सारा
दायित्व सरकार का मानने लगे हैं। धनी,
शिक्षित तथा शक्तिशाली वर्ग यह मानने लगा है कि अपनी रक्षा करना ही एक तरह से समाज की रक्षा है। इतना ही नहीं यह वर्ग मानता है कि वह अपने लिये
जो कर रहा है उससे ही समाज बचा हुआ है। जब
धर्म की बात आती है तो सभी उसकी रक्षा की बात करते हैं पर लालची लोगों का ध्येय
केवल अपनी समृद्धि, शक्ति तथा
प्रतिष्ठा बचाना रह जाता है। कहने का
अभिप्राय यह है कि हमें केवल किसी को अपने धर्म से जुड़ा मानकर उसे श्रेष्ठ मानना
गलत है बल्कि आचरण के आधार पर ही किसी के बारे में राय कायम करना चाहिये। हमारा
समाज त्याग पर आधारित सिद्धांत को मानता है जबकि लालची लोग केवल इस सिद्धांत की
दुहाई देते हैं पर चलते नहीं। समाज की सेवा भी अनेक लोगों का पारिवारिक व्यापार
जैसा हो गया है यही कारण है कि वह अपनी
संस्थाओं का पूरा नियंत्रण परिवार के सदस्यों को सौंपते हैं। दावा यह करते हैं कि
पूरे समाज का हम पर विश्वास है पर यह भी दिखाते हैं कि उनका समाज में
परिवार के बाहर किसी दूसरे पर उनका विश्वास नहीं है। हम जाति, धर्म, शिक्षा,
क्षेत्र तथा कला में ऐसे लालची लोगों की
सक्रियता पर दृष्टिपात करें तो पायेंगे कि उनका ढोंग वास्तव में समूचे समाज को बदनाम करने वाला हैं। बहरहाल हमें अपने आचरण
पर ध्यान रखना चाहिये। जहां तक हो सके धर्म, जाति, भाषा,
कला, राज्यकर्म तथा क्षेत्र के नाम पर समाज को समूहों में बांटने वाले लोगों की लालची प्रवृत्ति देखते हुए उनसे दूरी बनाने
के साथ ही अपना सहज त्याग कर्म करते रहना चाहिये।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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