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इंद्रियाणां विचरतां विषयेस्वपहारिषु।
संयमे यलमातिष्ठेद्विद्वान्यन्तेव वाजिनाम्।।
हिंदी में भावार्थ-एक विद्वान अपने मन और इंद्रियों पर वैसे ही लगाम से नियंत्रण करता है जैसे कि कोई कुशल सारथी अपने घोड़ों पर करता है।
जप्येनैव तु संसिध्येद् ब्राह्मणो नात्र संशयः।
कुर्यादन्यन्नवा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते।
हिंदी में भावार्थ-इसमें कोई संदेह नहीं है कि जाप यज्ञ से ही किसी को भी लाभ हो सकता है। परमात्मा का नाम जाप करने वाला अगर कोई अन्य यज्ञ नहीं करे तो भी उसे सिद्धि मिल जाती है और उसे समाज में भी सम्मान प्राप्त होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुमहाराज ने भी समाज में कर्मकांडों को महत्व को नकारते हुए यह विचार व्यक्त किया है कि अगर कोई मनुष्य हृदय से भगवान का जाप करे तो उसे पूरी तरह भक्ति का लाभ होगा। मनुमहाराज को भारतीय समाज का पथप्रदर्शक कहा जाता है। आलोचक तो उन पर समाज में अंधविश्वास फैलाने का आरोप लगाते हैं जबकि उनका यह स्पष्ट मत है कि अगर मनुष्य भगवान का नाम हृदय से जाप करे तो उसे कोई अन्य यज्ञ या हवन करने की आवश्यकता नहीं है। यह अलग बात है कि मनुमहाराज के प्रशंसक होने का दावा करने वाले अन्य प्रकार के कर्मकांडों पर ही अधिक जोर देते हैं और हृदय से जाप करने की बजाय न बल्कि स्वयं बल्कि दूसरों को भी प्रेरित करते हैं-कहीं कहीं तो बाध्य भी करते हैं।
उसी तरह मनु महाराज यह भी कहते हैं कि विद्वान वही है जो अपनी इंद्रियों पर अपना शासन करता है न कि उनसे शासित होता है। कितनी विचित्र बात है कि हमारे देश में शिक्षा का विस्तार होने के साथ ही लोगों में व्यसनों की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। शराब पीना तथा अनैतिक संबंध स्थापित करना शिक्षित लोगों के लिये एक फैशन बन गया है। असंयमित जीवन जीने वाले अधिकतर वही लोग हैं जिन्होंने शिक्षा प्राप्त की है और अपने आपको विद्वान कहने में उनको गौरव की अनुभूति होती है। सबसे अधिक लालच, लोभ और अहंकार की प्रवृत्ति का शिकार पढ़ा लिखा तबका ही हुआ है। मनुमहाराज के संदेश के अनुसार तो वह साक्षर और शिक्षित हैं पर विद्वान नहीं है। विद्वान तो उसी व्यक्ति को कहा जा सकता है जो अपनी इंद्रियों पर संयम रखता हो।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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