इस संसार में सभी व्यक्ति एक ही प्रकार के होते हैं। संसार के सभी जीवों की
आदते अपनी देह के अनुसार बन ही जाती हैं।
इसका कारण यह है कि हमारी पंचेन्द्रियां रूप, रस, स्पर्श,
सुगंध तथा तथा स्वर के साथ समान रूप से संपर्क में
आती हैं। यह अलग बात है कि अपने कर्म तथा भक्ति के अनुसार ही मनुष्य सात्विक, राजसी तथा तामसी प्रवृत्तियों का हो जाता है। आमतौर से तामसी प्रवृत्ति से
निष्क्रियता और सात्विक प्रकृत्ति से सीमित सक्रियता का भाव आता है जबकि राजसी प्रकृत्ति के लोग
अधिक सक्रिय दिखते हैं। कि कोई व्यक्ति सात्विक प्रकृत्ति का है इसका प्रमाण
केवल एक ही बात हो सकती है कि उसके आचरण में अधिक उपभोग का अभाव दिखता हैं। ऐसे लोग संख्या में अत्यंत कम होते हैं।
वरना तो अधिकतर लोगों मे काम, का्रेध, लोभ, मोह तथा अहंकार का भाव अधिक रहता है।
विद्वान अक्सर कहते हैं कि इन दोषों का त्याग किया जाना चाहिये पर सत्य यह
भी है कि जब तक यह पांचों क्रियायें देह से जुड़ी हैं इनके साथ सीमित संपर्क रखा जाये तो ये ही
गुण अधिक
सक्रियत से दोष बन जाते हैं।
श्रीगुरुग्रंथ साहिब में कहा गया है कि------------एक सुरति जेते है जीअ।सुरति विहूणा कोइ न कीअ।जेहि सुरति तेहा तिन राहुलेखा इको आवहु जाहु।।काहे जीअ करहि चतुराई।लेवैं देवैं न ढिल न पाई।।तेरे जीअ जीआ का तोहि।कित कउ साहिब आवहि रोहि।जे तू साहिब आवहि रोहि।तू ओना का तेरे ओहि।।हिन्दी में भावार्थ-संसार के सभी जीव एक ही तरह सूझ के साथ जीते हैं। कोई बिना सूझ के नहीं बना है। जिस तरह की जैसी सूझ है वैसे ही कर्म करता है। सभी जीव लेनदेन में चतुंराई दिखाते हैं। एक पैसा लेने में ढील नहीं दिखाते। ऐसे में हे परमात्मा आप उन पर उन पर क्यों क्रोध करोगे? आप तो उनके भी स्वामी हो।
अनेंक लोग यह कहते हैं कि इस संसार में कामी, का्रेधी, लालची,
मोह तथा अहंकारी समाज के शिखर पर पहुंुच जाते हैं तो
सरल भाव का आदमी हमेशा ही पिछड़ा रहता है।
अनेक लोग तो परमात्मा पर आक्षेप करते हुए भ्रष्टाचार, अपराध और आचरणहीन व्यापार करते हुए धनवान हो जाते जबकि सज्जन आदमी हमेशा ही
संषर्घ करता रहता है। यह उनका अज्ञान
है। इस ंसंसार के सभी लोग परमात्मा की
कृपा से मनुष्य योनि में हैं। देव और
दैत्य उसी के बनाये हैं। अपने कर्मों के
अनुसार ही सभी सुख दुःख भी भोगते हैं।
धनी कहें निर्धन सुखी और निर्धन
कहे धनी सुखी है पर सच यह है कि जिसने जीवन में परमात्मा के नाम का स्मरण करना सीख
लिया वह हर स्थिति में प्रसन्न चित रहता है।
सभी लोग एक दूसरे के बाह्य रूप देखकर अपनी राय बनाते हैं पर अंतर्मन की
हलचल किसी को दिखाई नहीं देती। आचरणहीनता से धन कमाने वालों के महल भी नरक तो ईमानदारी
से कमाने वाले की कुटिया भी स्वर्ग जैसी बन जाती है। यही ईमानदारी सात्विकता की
पहचान है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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