आजकल हमारे यहां अधिक मित्रों का संग्रह करने की
प्रवृत्ति प्रचलन में आ गयी है। अब किसी का एक दो मित्र नहीं होता वरन् पूरा एक
मित्र समूह बनाकर चला जाता है। कहा जाता है कि हंस कभी दल बनाकर नहीं चलते। यह
प्रवृत्ति कौऐ की मानी जाती है। मित्रता
का सामूहिक रूप कभी भी फलदायी नहीं हो सकता।
दूसरी बात यह कि शैक्षणिक,
व्यवसायिक तथा सेवा के क्षेत्रों
में सक्रियता के दौरान संपर्क में आने वाले सभी लोग मित्र नहीं हो सकते। एक बात हम यहां बता दें कि धर्म का समय केवल
प्रातःकाल होता है। उसके बाद का समय अर्थ का होता है इसलिये जो लोग हमसे अपनी
कार्यसिद्धि के लिये मिलते हैं उन्हें मित्र कहा ही नहीं जा सकता क्योंकि मित्रता
तो निस्वार्थ भाव से होती है।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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आरंभगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमति च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वाद्र्धपराद्र्ध-भिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।
हिंदी में भावार्थ-जिस तरह दिन की शुरूआत में छाया बढ़ने के बाद
फिर उत्तरार्द्ध में
धीरे-धीरे कम होती जाती है। ठीक उसी तरह सज्जन और दुष्ट की मित्रता होती है।
दुर्जनः परिहर्तवयो विद्ययाऽलङ्कृतोऽपि सन्।
मणिनाः भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकर।।
हिंदी में भावार्थ-कोई दुर्जन व्यक्ति विद्वान भी हो तो उसका साथ छोड़ देना चाहिए। विषधर में मणि
होती है पर इससे उससे उसका भयंकर रूप प्रिय नहीं हो जाता।
सज्जन
व्यक्तियों से मित्रता धीरे-धीरे बढ़ती है और स्थाई रहती है। सज्जन लोग अपना
स्वार्थ न होने के कारण बहुत शीघ्र मित्रता नहीं करते पर जब वह धीरे-धीरे आपका
स्वभाव समझने लगते हैं तो फिर स्थाई मित्र हो जाते हैं-उनकी मित्रता ऐसे ही बढ़ती
है जैसे पूर्वाद्ध में सूर्य की छाया बढ़ती जाती है। इसके विपरीत दुर्जन लोग अपना
स्वार्थ निकालने के लिए बहुत जल्दी मित्रता करते हैं और उसके होते ही उनकी मित्रता
वैसे ही कम होने लगती है जैसे उत्तरार्द्ध में सूर्य का प्रभाव कम
होने लगता है। पड़ौस तथा कार्यस्थलों में हमारा संपर्क अनेक ऐसे लोगों से होता है
जिनके प्रति हमारे हृदय में क्षणिक आत्मीय भाव पैदा हो जाता है। वह भी हमसे बहुत
स्नेह करते हैं पर यह यह संपर्क नियमित संपर्क के कारण मौजूद हैं। उन
कारणों के परे होते ही-जैसे पड़ौस छोड़ गये या कार्य का स्थान बदल दिया तो-उनसे
मानसिक रूप से दूरी पैदा हो जाती है। इस तरह यह बदलने वाली
मित्रता वास्तव में सत्य नहीं होती। मित्र तो वह है जो दैहिक रूप से दूर होते भी
हमें स्मरण करता है और हम भी उसे नहीं भूलते। इतना ही नहीं समय पड़ने पर उनसे सहारे
का आसरा मिलने की संभावना रहती है। अतः स्थितियों का आंकलन
कर ही किसी को मित्र मानकर उससे आशा करना चाहिये।जहां तक हो सके दुष्ट और स्वार्थी
लोगों से मित्रता नहीं करना चाहिये जो कि कालांतर में घातक होती है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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