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Thursday, February 13, 2014

दुष्ट लोगों को प्रसिद्धि का अवसर देना गलत-विदुर नीति(dusht logon ko prasiddh ka awasar dena galat-vidur neeti)



      योग साधक तथा ज्ञानार्थी लोग  इस बात के विरुद्ध  होते  है कि कोई ज्ञानी अपने धर्म पर किसी दूसरे विचाराधारा के व्यक्ति की टिप्पणी पर उत्तेजित होकर अपना संयम गंवायें। साथ ही किसी ज्ञानी को दूसरे धार्मिक विचाराधारा पर टिप्पणी करने की बजाय अपनी मान्यता के श्रेष्ठ तत्वों का प्रचार करना चाहिये। जबकि देखा जा रहा है कि लोग एक दूसरे की धार्मिक विचाराधारा का मजाक उड़ाकर सामाजिक संघर्ष की स्थिति निर्मित करते हैं।
      अभी हाल ही में एक गैर हिन्दू विचाराधारा की लेखिका के भारतीय धर्म का मजाक उड़ाती हुए एक पुस्तक पर विवाद हुआ। यह पुस्तक छपे चार साल हो गये हैं और इसे भारत में पुरस्कृत भी किया गया।  किसी को यह खबर पता नहीं थी।  जब विवाद उठा तब पता चला कि ऐसी कोई पुस्तक छपी भी थी।  दरअसल इस पुस्तक की वापसी के लिये कहीं किसी अदालत में समझौता हुआ है।  तब जाकर प्रचार माध्यमों में इसकी चर्चा हुई। एक विद्वान ने इस पर चर्चा में कहा कि इस तरह उस लेखिका को प्रचार मिल रहा है। इतना ही नहीं अब तो वह लेखिका भी बेबाक बयान दे रही है। संभव है इस तरह उसकी पुस्तकों की बिक्री बढ़ गयी हो। ऐसे में सभव है कि कहीं उसी लेखिका या प्रकाशक ने उस पुस्तक की प्रसिद्धि तथा बिक्री बढ़ाने के लिये इस तरह का विवाद प्रायोजित किया हो।

विदुर नीति में कहा गया है कि
असन्तोऽभ्यर्थिताः सिद्भः क्वचित्कार्य कदाचन।
मन्यन्ते सन्तमात्मानमसन्तामपि विश्रुत्तम्।।
     हिन्दी में भावार्थ-यदि किसी दुष्ट मनुष्य सेे सज्जन किसी विषय पर प्रार्थना करते हैं तो वह दुष्ट प्रसिद्ध के भ्रम में स्वयं को भी सज्जन मानने लगता है।

      हमारा मानना है कि धर्म चर्चा का नहीं वरन् आचरण का विषय है। किसी भी धार्मिक विचाराधारा में चंद  ठेकेदार यह दावा करते हैं कि वह उसे पूरी तरह समझते हैं। चूंकि हमारे समाज ने भी यह मान रखा है कि ज्ञान का अर्जन तो केवल बौद्धिक रूप से संपन्न लोग ही कर सकते हैं इसलिये कोई अपने प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन नहीं करता जिससे  उसमें से रट्टा लगाकर ज्ञान बेचने वाले लोगों को अपनी श्रेष्ठ छवि बनाने का अवसर मिलता है। दूसरी बात यह भी है कि यह कथित रूप से प्रचार किया जाता है कि बिन गुरु के गति नहीं है।  जबकि हमारे महापुरुष कहते हैं कि अगर योग्य गुरु नहीं मिलता तो परमात्मा को ही सत्गुरु मानकर हृदय में धारण करें। इससे ज्ञान स्वतः ही  मस्तिष्क में स्थापित हो जाता है।  दूसरी बात यह कि धर्म की रक्षा विवाद से नहीं वरन् ज्ञान के आचरण से ही हो सकती है।  दूसरी बात यह कि कुछ लोगों को अपनी प्रसिद्धि पाने की इच्छा पथभ्रष्ट कर देती है और तब वह जनमानस को उत्तेजित करने का प्रयास करते हैं। जब सज्जन लोग उनसे शांति की याचना करते हैं तो उन्हेें लगता है कि वह समाज के श्रेष्ठ तथा अति सज्जन आदमी है। इसलिये अपनी आस्था तथा इष्ट पर की गयी प्रतिकूल टिप्पणियों पर अपना मन खराब नहीं करना चाहिये।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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