हमारे देश में प्रचलित अध्यात्मिक धारा के
अनुसार जिस तरह साकार और निराकार दोनों ही
प्रकार की पूजा पद्धतियों को सहज मान्यता प्राप्त है वह विश्व में किसी अन्यत्र
विचाराधारा में नहीं है। इसका लाभ यह होता है कि समाज में कभी पूजा पद्धति को लेकर
आपस वैमनस्य नहीं फैलता पर इससे हानि यह हुई कि साकार और सकाम भक्ति की आड़ में
हमारे यह व्यवसायिक धार्मिक गुरुओं का प्रभाव इस तरह कायम हो गया कि तत्वज्ञान एक
अगेय विषय बन गया। इसकी चर्चा सभी करते हैं पर ग्रहण करने का सामार्थ्य बहुत कम
लोगों में होता है।
सामान्य मनुष्य बहिर्मुखी होता है और
इंद्रियों का भी यह स्वभाव होता है कि वह बाहर के विषयों की तरफ आकर्षित होती
हैं। यही कारण है कि आकर्षक आश्रम,
मनोरंजन की दृष्टि से कथायें कहने वाले
गुरु तथा सांसरिक फल जल्दी दिलाने के लिये प्रसिद्ध धार्मिक स्थान समाज में सदैव
लोकप्रिय रहे हैं। यह कोई आजकल की बात
नहीं वरन् कबीर के समय से ही इस तरह का प्रचलन
रहा है इसलिये उन्होंने व्यास पीठ
पर बैठकर कथा करने वालों की तरफ स्पष्ट ऐसा संकेत दिया जिनसे मन में मनोरंजन का
भाव तो आ सकता है पर तत्वज्ञान धारण करना कठिन होता है। यह सभी को पता है कि कथा के सार्वजनिक प्रदर्शन
में लगे लोग धन लेते हैं। उनका कथा करना तथा पैसे लेना कोई बुरा काम नहीं पर उसका अध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से कितना
महत्व है यह भी समझा जाना चाहिये।
संत कबीर दास कहते हैं कि
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कबीर व्यास कथा कहैं, भीतर भेदे नाहिं।
औरों कूं परमोधर्ता, गये मुहर का माहिं।।
सामान्य
हिन्दी में भावार्थ-व्यास
पीठ पर बैठकर कुछ विद्वान कथा करते हैं पर
उनकी बातें श्रोताओं का हृदय भेदकर अंदर नहीं जातीं। ऐसे विद्वान दूसरों का उद्धार
क्या करेंगे स्वयं ही पैसे की लालच में आकर यह कथा का व्यवसाय अपनाते हैं।
कबीर कहहिं पीर को, समझावै सब कोय।
संसय पड़ेगा आपकूं, और कहें का होय।।
सामान्य
हिन्दी में भावार्थ-दूसरों
की पीड़ा को देखकर उनके हरण का उपाय अनेक समझाते हैं पर स्वयं अपनी समस्याओं के हल
को लेकर वह स्वयं ही सशंकित रहते हैं।
जिन्होंने ज्ञान का रटा लगाया है पर धारण नहीं किया वही दूसरों को ज्ञान
बांटते हैं।
इस देश में अनेक लोगों ने धार्मिक प्रवचन करते
करते इतना धन कमा लिया है कि अनेक उद्योगपति तथा व्यवसायी भी उन जैसी समृद्धि
प्राप्त नहीं कर पाते हैं। देखा जाये तो
भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के नाम पर जितना व्यवसाय होता है उतना शायद ही किसी अन्य
विषय या वस्तु का होता हो। कुछ विद्वान
कहते हैं कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से संबंधित ग्रंथों में कि भारतीय वेदों में अस्सी फीसदी सकाम तथा बीस
फीसदी वाक्य निष्काम भक्ति से सबंधित है। दूसरी बात यह भी त्यागी को बड़ा माना गया
है भोगी को नहीं। मजे की बात यह है कि जो
लोग सकाम भक्ति के मंच पर होते हैं वही निष्काम रहने का उपदेश देते हैं। निराकार की बात करते करते साकार भक्ति की बात
करने लगते हैं। इतना ही नहीं भोग की
सामग्री का संचय करने वाले ही अपने शिष्यों को त्याग कर धर्म निर्वाह करने का
संदेश देते हैं। दान के नाम अपनी कथाओं का
दाम लेकर अपने शिष्यों को धन्य करते हैं।
इन व्यवसायिक कथाकारों पर किसी प्रकार की
दोषदृष्टि रखना व्यर्थ है क्योंकि अपनी समस्याओं से परेशान लोगों के मन को को यह
कुछ समय तक उसे संसारिक विषयों से परे रख थोड़ी राहत अवश्य देते हैं। हमारे कहने का
अभिप्राय तो यह है कि मन में स्थाई रूप से शांति रहे उसके लिये योग तथा ज्ञान की
साधना करते रहना चाहिये।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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