गुरुनानक देव जी के बारे में एक कथा सुनायी
जाती है। एक बार वह भ्रमण करते हुए गंगा
नदी के तट पर गये। वहां उन्होंने देखा कि
कुछ लोग नदी में नहाने के समय अपने हाथों से जल भरकर पितरों को अर्पित कर रहे
हैं। उन्होंने एक व्यक्ति से पूछा-‘‘यह क्या कर रहे हो?’’
उसने जवाब दिया कि-‘‘हम
पूर्व की तरफ मुंख कर पितरों को अपनी पवित्र नदी गंगा में नहाने के बाद जलांजलि दे
रहे है।’’
गुरुनानक देव जी फौरन नदी में उतर गये और अपने हाथों जल भरकर पश्चिम की
तरफ मुख कर उसे अर्पित करने लगे।
यह देखकर आसपास खड़े लोग आश्चर्य चकित रह गये। उन्हें लगा कि यह भोला इंसान
शायद कोई गलती कर रहा है। वहां उपस्थित एक आदमी ने उनसे कहा-‘‘यह क्या रहे हो? पश्चिम की तरफ मुख कर नहीं वरन् पूर्व की तरफ जलांजलि
दी जाये तभी पितरों को लाभ होता है।
गुरुनानक जी तत्काल जवाब दिया-‘‘मैं पितरों को नहीं वरन् अपने खेतों के पास जल भेज रहा हूं। मेरे खेत इस नदी के पश्चिम दिशा में स्थित है।’’
लोग हंसने लगे। एक ने कहा-‘‘अरे, यहां जल देने से
खेतों में नहीं पहुंचेगा।’’
गुरुनानक जी ने कहा-‘‘हंसने की बात नहीं है। जब तुम्हारे इतनी दूर
आकाश में स्थित पितरों को यहां दिया गया जल पहुंच सकता है तो मेरे खेत तो जमीन पर
ही स्थित है। क्यों नहीं पहुंचेगा?’’
यह कथा हिन्दू समाज में व्याप्त अंधविश्वासों के विरुद्ध श्रीगुरुनानक जी
के अभियान को दृढ़ संकल्पित ढंग से संचालन
करने की की शक्ति को प्रमाणित करती है।
इसका तात्पर्य यह है कि अंग्रेजों
के आने से पूर्व भी हमारे देश में समाज सुधार का अभियान प्रचलित था। गुरुनानक जी
एक महापुरुष थे जिनको नये अध्यात्मिक युग का प्रवर्तक माना जा सकता है। इसके अलावा भी संत कबीर, रहीम तथा रविदास जी ने भी अंधविश्वासों के विरुद्ध
अपना अभियान अत्यंत प्रभावशाली ढंग से चलाया। रविदास का यह कथन ‘‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’’ समग्र भारतीय दर्शन के पूर्ण सार को एक पंक्ति में ही व्यक्त कर देता है।
इन महान संतों ने अंधविश्वास के विरुद्ध अभियान नकारात्मक ढंग से नहीं
चलाया बल्कि सकारात्मक रुख अपनाते हुए ईश्वर के प्रति विश्वास पैदा किया। ‘यह मत करो’ कभी नहीं कहा
वरन् ‘यह करो’ का संदेश दिया। अंधविश्वासों के प्रति लोगों का मोह भंग करने
के लिये लोगों में उसके प्रति अरुचि पैदा करने की बजाय विश्वास के प्रति चेतना
लाना ही समाज सुधार का श्रेष्ठ रूप है।
हम आजकल अपने देश में ऐसे लोगों को सक्रिय देख रहे हैं जो कथित रूप से
समाज सुधारक बनकर यह प्रयास कर रहे हैं कि कानून बनाकर अंधविश्वासों को रोका
जाये। तय बात है कि यह लोग कुछ अंग्रेज
तथा वामपंथ समाज से प्रभावित हैं। यह लोग अपने आपको प्रगतिशील बताकर यह दावा करते
हैं कि समाज में व्याप्त कुरीतियां ही इस समाज का सबसे बड़ा संकट है। हम ऐसे लोगों से सहमत नहीं है। दरअसल यह लोग स्वयं तो सुविधाभोगी है और उन्हें
तमाम तरह के सम्मान भी मिले हुए हैं पर
उन्हें समाज में कथित रूप से जनविद्वान होने की श्रेणी की सदस्यता नहीं मिल
पाती। इसलिये वह चिढ़ते हैं। वह चाहते हैं
कि लोगों की भीड़ कथित साधुओं, संतों,
तांत्रिकों और मांत्रिकों के पास न आकर
उनके कल्पित सिद्धि को प्रणाम करे ताकि उनके अहंकार की भूख मिट सके।
एक योग और ज्ञान साधक के रूप में हमारे अभ्यास का अनुभव तो यही कहता है कि
इस संसार में अंधविश्वास और विश्वास के बीच कोई संघर्ष नहीं है। भक्त चार प्रकार
के-आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी-होते हैं। ज्ञानी अपने विश्वास की प्रमाणिकता प्राप्त कर
चुके होते हैं इसलिये वह कभी कथित कर्मकांडों का निर्वाह कर फल की आशा नहीं करते
जबकि बाकी तीनों के अपने अपने लक्ष्य होते हैं।
इन चारों में कोई में भी किसी को बुरा कहना नहीं है। श्रीमद्भागवत गीता के कथन के आधार पर हमें
चारों प्रकार के भक्तों की उपस्थिति स्वीकार करनी होगी। यह अलग बात है कि प्रथम तीन एक दूसरे के विचार
पर प्रहार करते हैं और ज्ञानी कभी ऐसा नहीं करते।
दूसरे को अंधविश्वासी कहकर स्वयं को ज्ञानी साबित करना सहज हो सकता है पर
अपने ज्ञान से दूसरे में विश्वास कायम करना एक कठिन प्रक्रिया है और आजकल के कथित
सुधारक ऐसे परिश्रम से बचने के लिये नारे लगाते हैं। वह राज्य से अंधविश्वास रोकने
की आशा करते हैं जबकि हमारा मानना है कि सच्चे संतों का यह काम है। राज्य से प्रजा हित के लिये बेहतर प्रयास करते
रहने की अपेक्षा करना ठीक है पर उनसे संत जैसे समाज सुधार की आशा नहीं की जा सकती।
संतगिरी से किये जाने वाले काम पुलिसगिरी से नहीं हो सकते। जो लोग कानून के सहारे
अंधविश्वासों को खत्म करना चाहते हैं उनको पता होना चाहिये कि इस देश में आर्थिक,
सामाजिक, पारिवारिक तथा व्यक्तिगत रूप से लोग परेशान रहने पर
कहीं न कहीं जाकर अपना तनाव खत्म करने का मार्ग ढूंढते है। तंत्र मंत्र से उनकी
समस्यायें दूर नहीं होती यह सत्य है पर उनके कुछ समय तक तनाव समाप्त होकर आशावादी
बने रहने का जो उनपर सकारात्मक प्रभाव होता है वह कोई बुरा नहीं है। कम से कम उनकी
समस्यायें हम खत्म नहीं कर सकते तो उनके तनाव का मार्ग रोकने का प्रयास भी नहीं
करना चाहिये।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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