हमारे अध्यात्म ग्रंथों
में भगवान के अवतारों, देवताओं, ऋषियों, मुनियों तथा संत कवियों की महिमा
का वर्णन किया गया है। इससे प्रभावित होकर अनेक लोग वैसा ही बनने या दिखने
का पाखंड रचते हैं। आजकल हम देखते हैं कि देश, समाज, तथा गरीबों का
कल्याण करने का दावा करने वालो अनेक लोग मिल जायेंगे। इतना ही नहीं आधुनिक
काल में अनेक ऐसे महापुरुष का चरित्र प्रचारित किया जाता है जिन्हें देश,
समाज तथा गरीबों का उद्धारक कहकर उनके अनुयायी सामान्य लोगों का संचालन
करते करते हैं। अगर आधुनिक प्रचारतंत्र की तरफ देखें तो लगेगा कि साक्षात
देवता अपने नये अवतारों में हमारे देश में विचरण कर रहे हैं।
आत्मविज्ञापन के माध्यम से सर्वश्रेष्ठ बनने से अधिक लोगों को दिखने के
लिये प्रेरित लोग समाज सेवा को विशुद्ध रूप से व्यवसाय की तरह कर रहे हैं।
एक मजे की बात है कि निज आचरण को सार्वजनिक चर्चा से अलग कर यह कहा जाता
है कि सामाजिक जीवन में सक्रिय लोगों का केवल बाह्य काम देखा जाये।
विदुरनीति में कहा गया है कि
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न स्वप्नेन जयेनिद्रां न कामेन जयेत् स्त्रियः।
नेन्धनेन जयेदग्नि न पानेन सुरां जयेत्।।
‘‘सपनों को निद्रा से, काम से स्त्री तथा लकड़ी से आग तथा अधिक मदिरा पीकर व्यसनों की जीतने की इच्छा करना व्यर्थ है।
’’सहस़्ित्रणेऽपि जीवन्ति जीवन्ति शातिनस्तथा।।
धृतराष्ट्र निमुंचेच्छां न कर्थचित्र जीव्यते।।
‘‘जिनके पास हजार है वह भी जीवित है तो जिसके पास सौ है वह भी जी रहा है। यह बात निश्चित है कि जो लोभ छोड़ेगा वह भी अपना जीवन व्यतीत करेगा।’’
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न स्वप्नेन जयेनिद्रां न कामेन जयेत् स्त्रियः।
नेन्धनेन जयेदग्नि न पानेन सुरां जयेत्।।
‘‘सपनों को निद्रा से, काम से स्त्री तथा लकड़ी से आग तथा अधिक मदिरा पीकर व्यसनों की जीतने की इच्छा करना व्यर्थ है।
’’सहस़्ित्रणेऽपि जीवन्ति जीवन्ति शातिनस्तथा।।
धृतराष्ट्र निमुंचेच्छां न कर्थचित्र जीव्यते।।
‘‘जिनके पास हजार है वह भी जीवित है तो जिसके पास सौ है वह भी जी रहा है। यह बात निश्चित है कि जो लोभ छोड़ेगा वह भी अपना जीवन व्यतीत करेगा।’’
आज हम जब समाज की स्थिति देखते हैं तो आम आदमी एक भेड़ की तरह दिखाई देता
है जिसे वह खास लोग हांक रहे हैं जिनका आचरण, कर्म तथा लक्ष्य पवित्र नहीं
है पर वह शिखर पर इस तरह स्थापित हैं कि उनका निजत्व देखना कठिन है।
सार्वजनिक जीवन में देवत्व का दर्जा प्राप्त करने वाले कथित लोग अपने
निजत्व में राक्षसत्व का का मिश्रण कर अपने श्रेष्ठ होने का आत्म विज्ञापन
करते हैं। जिन लोगों को अपने भले के अलावा कुछ करना नहीं आता वही समाज
सेवा करने के लिये आ रहे हैं। तत्व ज्ञान को रटने के बाद मोहमाया का
संग्रह करने वाले कथित गुरु अपने आपको अवतार घोषित कर देते हैं। ऐसे में
हमें विदुर नीति से प्रेरणा लेकर यह स्वयं तय करना चाहिए कि कौन कितने पानी
में हैं? साथ ही यह सोचना चाहिए कि जिनके पास धन संपदा का अभाव है वह भी
जिंदा रहता है। जिंदा रहने के लिये धन से अधिक संकल्प की आवश्यकता होती
है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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