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Friday, July 22, 2011

हिन्दू धर्म संदेश-मन पवित्र न हो तो भक्ति से कोई लाभ नहीं (man pavitra hone par hi bhakti se labh-hindu relgiion thought)

               हमारे अध्यात्मिक दर्शन मे भक्ति के प्रकारों को लेकर कोई विवाद नहीं है यह अलग बात है कि कुछ लोग अनावश्यक रूप से इस पर विवाद होता दिखाते हैं। हमारे वेदशास्त्रों में अस्सी फीसदी से ज्यादा सकाम भक्ति पर लिखा गया है तो बीस फीसदी निष्काम भक्ति पर चर्चा की गयी है। श्रीगीता चूंकि समस्त वेदों का सार माना जाता है इसलिये उसका महत्व बहुत है। उसमें स्पष्ट रूप से निराकार तथा निष्काम भक्ति को श्रेष्ठ बताया गया है पर सकाम और साकार भक्ति की महत्ता को भी स्वीकार किया गया है। यही कारण है कि हमारे यहां भक्तों में परमात्मा के स्परूप को लेकर विवाद नहीं होता। अनेक इतिहासकारों के साथ विदेशी संस्कृति और धर्म के देशी समर्थक भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का मखौल उड़ाते हुए कहते हैं कि उनका कोई एक ग्रंथ या भगवान नहीं है। उनकी इस आलोचना का भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान समर्थक अधिक प्रतिकार नहीं करते हुए समाज में एकरसता लाने की वकालत करते हैं। दरअसल ऐसे लोगों ने श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन नहीं किया होता। यदि अध्ययन किया होता है तो समझा नहीं होता।
हमारे अध्यात्मिक दर्शन में सकाम तथा सगुण भक्ति का महत्व स्वीकार किया गया है पर भाव निष्काम होने की बात कही गयी है। इस विषय पर हमारे ग्रंथो में कहा गया है कि--
सम्प्रीतिभोज्यान्यन्ननि आपभ्दोन्यानि वा पुनः।
न च सम्प्रीयस राजन् न चैवायद्गता वयम्।।
                    पूर्णकाम होने के कारण भगवान किसी भी वस्तु की चाहत नहीं रखते। वह तो प्रेम के भूख हैं। भगवान कहते हैं कि पत्र, पुष्प, फल अथवा जल जैसी वस्तुऐं मनुष्यों को बिना परिश्रम के बड़ी सरलता से मिल जाती हैं इसलिये उनको मुझे अर्पण करना कोई बड़ी बात नहीं है। इस अर्पण में प्रेम का भाव होना चाहिए। जो भक्त प्रेम से यह वस्तुऐं अर्पण करता है उसके निष्काम भाव को देखकर में सगुण रूप में प्रकट होकर खाता हूं।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो में भक्तया प्रयच्छति।
तदहं भवत्युपतमनश्नामि प्रयतात्मनः।।
             "जिस मनुष्य का हृदय शुद्ध न हो तो वह चाहे बाहर से कितना भी शिष्टाचार दिखाते हुए पत्र, पुष्प, फल तथा जल जैसे वस्तुऐं प्रदान करे उसे भगवान स्वीकार नहीं करते"
                   श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण योगासन, प्राणयाम तथा मंत्र जाप करने वाले भक्त को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं पर साथ ही सकाम भक्ति को राजस भाव से उत्पन्न होने के कारण स्वभाविक भी मानते हैं। निष्काम तथा निर्गुण भक्ति में व्यक्ति को अंतर्मुखी होना पड़ता है जो कि कठिन होता है क्योंकि उससे बाहर प्रतिक्रिया दिखाई नहीं देती जबकि सकाम तथा सगुण भक्ति में लोगों को उसका बाहरी प्रदर्शन बहुत अच्छा लगता है। इसलिये सामान्य लोग उसी तरफ आकर्षित होते है। यह भी बुरा नहीं है पर उसमें भाव निष्काम होना चाहिये यही हमारे धर्मग्रंथों का कहना है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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