प्रकृति के पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती है। जिनके पास भौतिक उपलब्धि है वह उसके आकर्षण में बंधकर मतमस्त हो जाते हैं। दूसरे को गरीब या अल्पधनी मानकर उसका मज़ाक उड़ाते हैं। मज़ाक न उड़ाये तो भी शाब्दिक दया दिखाकर अपने मन को शांति देने का प्रयास करते हैं। दरअसल यह सब दूसरों से ही नहीं बल्कि अपने साथ भी प्रमाद करना ही है। इस संसार में भगवान की तरह माया का खेल भी निराला है। किसी के पास कम है तो किसी के पास ज्यादा है, इसमें मनुष्य की कोई भूमिका नहीं है। यह अलग बात है कि अज्ञानवश वह अपने को कर्ता मान लेता है। इसी कारण वह कभी प्रमाद तो कभी अहंकार के भाव से ग्रसित होकर व्यवहार करता है।
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
इस विषय पर कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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प्रकृतिव्यसननि भूतिकामः समुपेक्षेत नहि प्रमाददर्पात्।
प्रकृतिव्यवसनान्युपेक्षते यो चिरातं रिपवःपराभवन्ति।।
"विभूति की कामना से उत्पन्न प्रमाद और अहंकार की प्रकृति से उत्पन्न व्यसन की उपेक्षा न करें। प्रकृत्ति की व्यसनों की उपेक्षा करने वाला शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
प्रकृतिव्यवसनान्युपेक्षते यो चिरातं रिपवःपराभवन्ति।।
"विभूति की कामना से उत्पन्न प्रमाद और अहंकार की प्रकृति से उत्पन्न व्यसन की उपेक्षा न करें। प्रकृत्ति की व्यसनों की उपेक्षा करने वाला शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
आज हम देश के हालात देखें तो यह बात समझ में आ जायेगी कि जिन लोगों के पास धन, प्रतिष्ठा और पद की उपलब्धि है वह दूसरे को अपने से हेय समझते हैं। नतीजा यह है कि आम इंसानों में उनके प्रति विद्रोह के बीज पड़ गये हैं। शिखर पुरुषों को यह भ्रम है कि आम आदमी उनसे जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्र के बंटवारे के कारण उनसे जुड़े हैं जो कि उनके किराये के बुद्धिजीवी बनाकर रखते हैं। मगर सच तो यह है कि शिखर पुरुषों से अब किसी की सहानुभूति नहीं है। भले ही प्रचार माध्यम कितने भी दावा करें कि जनता प्रसिद्धि लोगों को देखना और सुनना चाहती है। अब तो हर आदमी यह जान गया है कि शिखर पर अब बिना ढोंग, पाखंड या बेईमानी के कोई नहीं पहुंच सकता। अगर ऐसा न होता तो देश के अनेक शिखर पुरुष अपने घरों के बाहर सुरक्षा उपाय नहीं करते। इतना ही नहीं अनेक तो राह चलते हुए भी सुरक्षा लेकर चलते हैं। इसका मतलब सीधा है कि अपने ही कारनामों को उनके अंदर भय व्याप्त है। गरीबों से भरे देश में सुरक्षा एक मुद्दा बन गयी है।
फिर अब समाज के आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक शिखरों पर 'मैं बड़ा' 'मैं बड़ा' की बात पर भी झगड़े होने लगे हैं। एक जाता है तो दूसरा आ जाता है। यह अस्थिरता इसलिये हैं क्योंकि प्रमाद और अहंकार में लगे शिखर पुरुष जल्दी जल्दी अपना आकर्षण खो देते हैं। शिखर बैठकर वह अपने वैभव का प्रदर्शन कर वह एक दूसरे को प्रभावित तो कर सकते हैं पर आम आदमी को नहीं। आम आदमी कि समस्याओं पर किसी का ध्यान नहीं है।
इसके अलावा व्यसनों के प्रति लोगों के झुकाव ने नैतिक आचरण का अर्थ ही बदल दिया हैं। शराब पीना और निरर्थक बकवाद में समय बर्बाद करना आधनिक होने का प्रमाण मान लिया गया है। इस सोच में बदलाव लाना जरूरी है और यह तभी संभव है जब ज्ञान मार्ग का अनुसरण किया जाये।
इसके अलावा व्यसनों के प्रति लोगों के झुकाव ने नैतिक आचरण का अर्थ ही बदल दिया हैं। शराब पीना और निरर्थक बकवाद में समय बर्बाद करना आधनिक होने का प्रमाण मान लिया गया है। इस सोच में बदलाव लाना जरूरी है और यह तभी संभव है जब ज्ञान मार्ग का अनुसरण किया जाये।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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