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Wednesday, May 25, 2011

मनुस्मृति-मृत्यु से भी ज्यादा बुरे हैं व्यसन (mritu se sandesh-mritu se adhik bure vyasan)

                   पहले आदमी प्रारंभ में शौक के लिये जुआ, सट्टा या तंबाकू सेवन का व्यसन अपने अंदर पालता है और बाद में वह सब उसके मन के ऐसे स्वामी बन जाते हैं जिसके बिना जीवित रहना ही उसे कठिन लगता है। यह तो प्रमाणिक व्यसन हैं पर कुछ ऐसे भी हैं जिनको व्यसन के रूप में हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में कहीं वर्णित नहीं किया गया क्योंकि उनका प्रादुर्भाव तो आधुनिक युग की देन है। क्रिकेट मैच, फिल्में, मोबाइल पर अनावश्यक रूप से चिपके रहना तथा टीवी धारावाहिकों को देखना भी ऐसे ही व्यसन हैं जिनमें आंखें और मन दोनों ही खराब होता है। वैसे आजकल हम अनावश्यक रूप से मोबाइल का उपयोग करना भी व्यसन मान सकते हैं। ऐसे व्यसन पश्चिम की ही देन है और वहां के विशेषज्ञ ही यह मानते हैं कि रंगीन टीवी सतत देखना या मोबाइल का अधिक उपयोग इंसान के शरीर और मन के लिये घातक है।
                 व्यसनों के विषय में मनुमहाराज कहते हैं कि
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             व्यसनस्य च मृत्योश्च व्यसनं कष्टमुच्यते।
          व्यसन्यधोऽधोव्रजति स्वर्यात्यव्यसनी मृतः।।
           ‘‘मृत्यु तथा व्यसन में व्यसन अधिक पीड़ा देने वाला होता है। व्यसन करने वाले व्यक्ति का सतत पतन होता जाता है जबकि व्यसन रहित मृत्यु के बाद भी स्वर्ग प्राप्त करता है।’’
            आधुनिक व्यापार जगत ने आम समाज के लिये मनोरंजन के नाम पर ऐसी व्यवस्था की है जिसमें एक के बाद एक नया दृश्य सामने आता है। पहले क्रिकेट तो फिर फिल्म और फिर कहीं फुटबाल होती थी अब तो मोबाइल भी एक ऐसा मनोरंजन का साधन बन गया है जिसमें लोग प्राणप्रण से जुटे रहते हैं। कहीं भीड़ में खड़े हो जाओ तो आसपास दस में से पांच लोग मोबाइल पर बात करते नज़र आते हैं।
                    यह समाज पहले भी तो चल रहा था पर ऐसा क्या हो गया है कि अब उसके लिये मोबाइल, किक्रेट या फिल्म का होना अनिवार्य हो गया है। सच तो यह है कि विकास के साथ सामाजिक संबंध सिकुड़ रहे हैं और इसी वजह से तनाव से उपजने वाली बीमारियां बढ़ भी रही हैं। हमने सुविधाओं का उपयोग व्यसन बना दिया है। ध्यान और योग की बजाय शोर शराबे से भक्ति करने की आदत बन गयी है। तत्वज्ञान से परे होकर हम संसार की वस्तुओं और व्यक्तियों में प्रसन्नता ढूंढने लगे हैं। किसी व्यक्ति का स्वभाव, आदतें तथा व्यवहार देखने की बजाय उसके मुख तथा आभामंडल देखकर उसके प्रशसंक बन जाते हैं। व्यसनों ने हमारी चिंत्तन क्षमता को समाप्त कर दिया है। ऐसे में उनसे बचने का विचार करना चाहिए।
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लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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