समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
-------------------------


Wednesday, February 16, 2011

राजकाज सुचारु रूप से चलाने का भी तरीका होता है-हिन्दू धर्म संदेश (government and hindu religion-dharma sandesh)

आखिर राजधर्म क्या है? राजकाज से जुड़े लोगों को कैसा होना चाहिए? इस पर आजकल शायद ही कोई जानता हो। सभी लोग यह दावा तो करते हैं कि वह राजकाज के योग्य हैं पर योग्यता का पैमाना है कोई नहीं बता सकता। केवल उच्च प्रशासनिक पदों पर पहुंचना ही राजनीति कार्यकुशलता का प्रमाण नहीं है वरन् प्रजा के लिये हितकर कार्य करना भी आवश्यक है तभी लोकप्रियता मिलती है। वरना तो भले ही कोई भी उच्च पद पर विराजे उसकी स्थिति आम इंसान की तरह ही रहती है।
वाल्मीकी रामायण में अयोध्याकांड के सौवें सर्ग में भगवान श्रीराम ने बनवास के बाद वन में पहली बार मिलने आये अपने लघुभ्राता श्री भरत जी को राजनीति का उपदेश दिया है। इनमें कुछ आज भी प्रासंगिक और दिलचस्प लगते हैं। इनके अध्ययन ने राम राज्य की जो कल्पना है उसका स्वरूप उभर सामने आता है।
"1. रघुनंदन! क्या तुम्हारी आय अधिक और व्यय बहुत कम है? तुम्हारे खजाने का धन अपात्रों क हाथ में तो नहीं चला जाता। श्लोक - 54
2.कभी ऐसा तो नहीं होता कि कोई मनुष्य किसी श्रेष्ठ निर्दोष और शुद्धात्मा पुरुष पर भी दोष लगा दे तथा शास्त्रज्ञान में कुशल विद्वानों द्वारा उसके विषय में विचार कराये बिना ही लोभवश उसे आर्थिक दंड दे दिया जाता हो। श्लोक -56
3.नास्तिकता,असत्य भाषण,क्रोध,प्रमाद,दीर्घसूत्रता,ज्ञानी पुरुषों का संग न करना,आलस्य,नेत्र अति पांचों इंद्रियों के वशीभूत होना,राजकार्यों में अकेले ही विचार,प्रयोजन को न समझने वाले विपरीतदर्शी मूर्खों से सलाह लेना, निश्चित किये हुए कार्यो का शीघ्र प्रारंभ न करना, गुप्त मंत्रणा को सुरक्षित न रखकर प्रकट कर देना,मांगलिक आदि कार्यों का अनुष्ठान न करना तथा सब शत्रुओं पर एक ही साथ आक्रमण करना-यह राजा के चैदह दोष हैं। तुम इन दोषो का सदा परित्याग करते हो न! श्लोक  65-67
4.इस प्रकार धर्म के अनुसार दण्ड धारण करने वाला विद्वान राजा प्रजाओं का पालन करके समूची पृथ्वी को यथावत् रूप से अपने अधिकार में कर लेता है तथा देहत्याग करने के पश्चात् स्वर्ग में निवास करता है।

पुराने ग्रंथों में अनेक प्रसंग राजाओं के संबंध में कहे जाते हैं पर इसका आशय यह यह कतई नहीं है कि उनका सामान्य व्यक्ति से कोई संबंध नहीं हैं। जिस तरह राजा अपने राज्य का मुखिया होता है उसी तरह सामान्य मनुष्य भी अपने परिवार का मुखिया होता है। अगर कोई राजा में होना जरूरी है तो उतना ही सामान्य मनुष्य में जरूरी है। जिस दोष से राजा को परे होना चाहिये उससे सामान्य मनुष्य को भी परे होना चाहिये। घर परिवार में भी राजधर्म का निर्वाह करने कि कुशलता होने से आनंद होता है। जहाँ राजकाज का जिम्मा  हो वहां सुविधा होती है
-------------------------
hindu Religion,hindu dharma,अध्यात्म,शिक्षा,संदेश,समाज,हिन्दी साहित्य, valmiki ramayan
हिन्दी साहित्य,वाल्मीकी रामायण,भगवान श्रीराम hindi sahitya,valmiki ramayan,bhagwan shriram

लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',ग्वालियर 
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

No comments:

Post a Comment

अध्यात्मिक पत्रिकाएं