आपन तो समुझै नहीं, वृथा गया अवतार
स्वयं शिक्षा प्राप्त की और फिर अपने शिष्यों को भी ज्ञान देने लगे पर जिन लोगों ने अपने आपको नहंी समझा उनका जीवन तो व्यर्थ ही गया।
लिखना पढ़ना चातुरी, यह संसारी जेव
जिस पढ़ने सों पाइये, पढ़ना किसी न सेव
संत कबीरदास जी कहते हैं कि संसार में अपनी जीविका चलाने की शिक्षा तो हर कोई प्राप्त करता है। यह चतुराई तो हर मनुष्य में स्वाभाविक रूप से आती है। जिससे पढ़ने से अध्यात्म ज्ञान प्राप्त होता है वह कोई भी स्वीकार नहीं करना चाहता।
वर्तमान संदर्भ संपादकीय व्याख्या-अक्सर अनेक लोग शिकायत करते हुए मिल जाते हैं कि उनके बच्चे उनसे परे हो गये हैं या उनकी देखभाल नहीं करते। इसके दो कारण होते हैं एक तो यह कि नये सामाजिक परिवेश से तालमेल न बिठा पाने के कारण लोग अपने माता पिता को त्याग देते हैं या फिर वह व्यवसाय के सिलसिले में उनसे दूर हो जाते है। दोनो ही स्थितियों का विश्लेषण करें तो यह अनुभव होगा कि सभी माता पिता अपने बच्चों से यह अपेक्षा करते हैं कि वह इस मायावी दुनियां में उच्च पद प्राप्त कर, अधिक धनार्जन कर, और प्रतिष्ठा की दुनियां में चमककर उनका नाम रोशन करें। लोग बच्चों की कामयाबी के सपने देखते हैं और केवल सांसरिक शिक्षा तक ही अपने बच्चों को सीमित रखते हैं। किसी तरह अपना पेट पालो यही सिखाते हुए वह ऐसा अनुभव करते हैं कि जैसे कि वह दुनियां का कोई विशेष ज्ञान दे रहे हैं। यह तो एक सामान्य चतुराई है जिसे सब जानते हैं।
यह उनका एक भ्रम है। यह शिक्षा तो सभी स्वतः ही प्राप्त करते हैं पर जिन बच्चों को उनके माता पिता इसके साथ ही अध्यात्म ज्ञान, ईश्वर भक्ति और परोपकार करना सिखाते हैं वह अधिक योग्य निकलते हैं। जब तक आदमी मन में अध्यात्म का ज्ञान नहीं होगा तब वह न तो स्वयं कभी प्रसन्न रह पाता है और न ही दूसरों को प्रसन्न करता है।
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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