फिर परमोधे और को, आपन समुझै नांहि
विद्वान लोग वेद पढ़ते हुए बहुत प्रकार का ज्ञान प्राप्त तो कर लेते हैं पर वह इतना भारी होता है कि उसे ढोना कठिन है। वह एक तरह से उनके लिये पिंंजरा बन जाता है जिसमें से निकलना उनके लिये संभव नहीं होता। धार्मिक ग्रंथ पढ़कर बहुत सारे लोग ज्ञानी कहलाते हैं पर दूसरों को तो उपदेश देते हैं पर स्वयं समझ नहीं पाते।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कहते हैं कि भारत में शिक्षा का प्रसार हो रहा है पर दूसरा सच यह भी है कि अधिकतर लोग नौकरी-एक तरह से गुलामी-के लिये तैयार हो रहे हैं। शिक्षा प्राप्त करने के बाद वह अपने लिये किसी कंपनी या संस्थान का पिंजरा ढूंढते हैं जिसमें वह चैन से बैठ सकें। जब मालिक या बोस अनुमति दे-अवकाश स्वीकृत करे-तभी वह उड़कर इस दुनियां का आनंद लें फिर अपने पिंजरे में फिर वापस लौट आयें-वैसे ही जैसे तोता अपने पिंजरे में लौट आता है।
बहुत सारे ज्ञानी तो हम देख सकते हैं। पंडालों में हजारों की भीड़ बैठी रहती है और कथित ज्ञानी अपने प्रवचन देते हुए लोगों को मोह माया से दूर रहने का संदेश देते हैं। कार्यक्रम समाप्त होने से पहले फिर लोगों से दान का आग्रह जरूर करते हुए यह जरूर कहते हैं कि ‘धन के बिना आजकल कोई काम नहीं होता। इसलिये अपना पैसा प्रदान अवश्य करें कि धर्म का प्रचार कर सकें।’
इस तरह अनेक कथित ज्ञानियों ने पंचसितारा आश्रम बना लिये हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि धमग्रंथों का अध्ययन उन लोगों ने किया होता है। उनके प्रवचनों से यह प्रमाणित भी होता है पर वह भी उसी अज्ञान के पिंजरे में बंदी लगते हैं जिसमें सामान्य आदमी के होने का आभास हमेशा होता है। धर्म प्रचार के लिये संलग्न ऐसे लोग यह नहीं जानते कि वह स्वयं ही एक पिंजरे में कैद हैं।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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