आजकल पूरे विश्व में ऋण लेकर अपने लिये सुख साधन
जुटाने की प्रवृत्ति बढ़ी गयी है। दूसरे के घर की रोशनी देखकर आदमी अपने घर
में कर्ज लाकर आग लगाने को तैयार दिखता है। सुख किश्तों पर मिलता है पर
दुःख कभी एकमुश्त चला आता है। कर्ज लेकर सामान लेने वाले जब ब्याज और
मूलधन नहीं चुका पाते तब उनके पास सिवाय भारीसंताप में फंसे रहने अलावा
कोई चारा नहीं रहता। विलाप करते रहने के सिवाय उनके पास अन्य मार्ग नहीं
रहता। आदमी अब दूसरों पर अपनी निर्भरता इस कदर बढ़ा चुका है कि सड़क पर सिर
उठाकर चलने की उसकी मनःस्थिति नहीं रही। आवश्यकताओं ने आदमी को मजबूर बना
दिया है और वह कभी किसी सामाजिक संघर्ष में जमकर लड़ नहीं सकता।
इतना ही नहीं ईश्वर से प्रार्थना करते समय हर आदमी केवल अपने लिये लोकोपयोगी सामान की याचना करता है। कोई भी आदमी अपने लिये बल और बुद्धि नहीं मांगता जिससे इस संसार की समस्याओं से निपटा जा सकता है। कहा जाता है कि जैसा आदमी के हृदय में संकल्प रहता है वैसा ही उसके लिये यह संसार हो जाता है। आजकल लोग भोग प्रवृत्तियों को तो धारण कर लेते हैं पर योग संस्कार के अभाव में उनकी तृप्ति दूसरे की सहायता से कर्ज, दान या उधार लेकर ही होती है। यह सब ग्रहण करना अशक्त आदमी का प्रमाण है इसलिये जहां तक हो सके ईश्वर से अपने लिये बल और बुद्धि की याचना करना चाहिए। किसी दूसरे के आगे हाथ फैलाने से अच्छा है उसके आगे हाथ फैलाया जाये जो सभी का दाता है।
यजुर्वेद में कहा गया है कि
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दृते छोड़ मां ज्योवते सांदृशि जीव्यासं ज्योवते सदृशि जीष्यासम्।।
हिन्दी में प्रार्थना का भावार्थ-‘‘हे समर्थ! मुझे शक्तिशाली बनाओ ताकि सब
मुझे मैत्री भाव प्रदान करें। हम सभी एक दूसरे को प्रेममयी दृष्टि से
देखें।---------------
दृते छोड़ मां ज्योवते सांदृशि जीव्यासं ज्योवते सदृशि जीष्यासम्।।
मयि त्यांदिन्द्रियं बृहन्मयि दक्षो मयि क्रतुः।।
हिन्दी में इस प्रार्थना का अर्थ--‘‘मुझे महान शक्ति प्रदान करो। दक्षता
प्रदान करो ताकि अपने कर्तव्य का निर्वाह कर सकूं।’’ इतना ही नहीं ईश्वर से प्रार्थना करते समय हर आदमी केवल अपने लिये लोकोपयोगी सामान की याचना करता है। कोई भी आदमी अपने लिये बल और बुद्धि नहीं मांगता जिससे इस संसार की समस्याओं से निपटा जा सकता है। कहा जाता है कि जैसा आदमी के हृदय में संकल्प रहता है वैसा ही उसके लिये यह संसार हो जाता है। आजकल लोग भोग प्रवृत्तियों को तो धारण कर लेते हैं पर योग संस्कार के अभाव में उनकी तृप्ति दूसरे की सहायता से कर्ज, दान या उधार लेकर ही होती है। यह सब ग्रहण करना अशक्त आदमी का प्रमाण है इसलिये जहां तक हो सके ईश्वर से अपने लिये बल और बुद्धि की याचना करना चाहिए। किसी दूसरे के आगे हाथ फैलाने से अच्छा है उसके आगे हाथ फैलाया जाये जो सभी का दाता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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