मान बड़ाई ऊरमी, ये जग का व्यवहार।
दीन गरीबी बन्दगी, सतगुरु का उपकार।।
दीन गरीबी बन्दगी, सतगुरु का उपकार।।
मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।
जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।
जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि दूसरों की देखादेखी कुछ लोग सम्मान पाने के लिये परमात्मा की भक्ति करने लगते हैं पर जब वह नहीं मिलता वह मूर्खों की तरह इस संसार में ही दोष निकालने लगते हैं।
संत शिरोमणि कबीरदास का कहना है कि जिस तरह दुनियां का व्यवहार है उससे देखकर तो यही आभास होता है कि मान और बड़ाई दुःख का कारण है। सतगुरु की शरण लेकर उनकी कृपा से जो गरीब असहाय की सहायता करता है, वही सुखी है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में ऐसे अनेक लोग हैं जो अपनी धार्मिक छबि बनाये रखने के लिये भक्ति का दिखावा करते हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो गुरु बनकर अपने लिये शिष्य समुदाय का निर्माण कर अपनी रोजी रोटी चलाते हैं। ऐसे दिखावे की भक्ति करने वाले अनेक लोग हैं। इसके विपरीत जो भगवान की वास्तव में भक्ति करते हैं वह उसका प्रयार नहीं करते न ही अपना ज्ञान बघारते हैं।
भक्त और ज्ञानी की पहचान यह है कि वह कभी अपनी भक्ति और ज्ञान शक्ति का बखान नहीं करते बल्कि निर्लिप्त भाव से समाज सेवा करते हुए अपना जीवन यापन करते हैं। अपनी सच्ची भक्ति और ज्ञान के कारण कुछ लोग महापुरुषों की श्रेणी में आ जाते हैं उनको देखकर अन्य लोग भी यही प्रयास करते हैं कि उनकी पूजा हो। यह केवल अज्ञान का प्रमाण है अलबत्ता अपने देश में धार्मिक प्रवचन एक व्यवसाय के रूप में चलता रहा है। इस कारण तोते की तरह किताबों को रटकर लोगों को सुनाते हुए खूब कमाते हैं। उनको देखकर कुछ लोग यह सोचते हुए भक्ति का दिखावा करते हैं कि शायद उनको भी ऐसा ही स्वरूप प्राप्त हो। अनेक लोग संतों की सेवा में इसलिये जाते हैं कि हो सकता है कि इससे उनको किसी दिन उनकी गद्दी प्राप्त हो जाये। ऐसे में भक्ति और ज्ञान तो एक अलग विषय हो जाता है और वह मठाधीशी के चक्कर में राजनीति करने लगते हैं। किताबों को रटने की वजह से उनको शब्द ज्ञान याद तो रहता है ऐसे में वह थोड़ा बहुत प्रवचन भी कर लेते हैं पर उनकी भक्ति और ज्ञान प्रमाणिक नहीं है। वैसे भी अपने पौराणिक ग्रंथों का अध्ययन हर आदमी इतना तो कर ही लेता है कि उसे सारी कथायें याद रहती हैं। नहीं भी अध्ययन करे तो इधर उधर सुनकर उसे बहुत सारी कथायें याद आ ही जाती हैं। । किसी आदमी ने वह भी नहीं किया हो तो अपने अध्यात्मिक दर्शन के कुछ सूक्ष्म सत्य-निष्काम कर्म करो, परोपकार करो, दया करो और माता पिता की सेवा करे जैसे जुमले- सुनाते हुए श्रोताओं और दर्शकों की कल्पित कहानियों से मनोरंजन करता है। उनको सम्मानित होते देख अन्य लोग भक्ति में जुट जाते हैं यह अलग बात है कि कामना सहित यह भक्ति किसी को भौतिक फल दिलाती है किसी को नहीं।
फिर भक्ति हो या ज्ञानार्जन अगर कामना सहित किया जाये और सफलता न मिले तो आदमी संसार में दोष ढूंढने लगता है। यह केवल भक्ति या ज्ञान के विषय में नहीं है बल्कि साहित्य और कला के विषयों में भी यही होता है। आदमी आत्ममुग्ध होकर अपना काम शुरु करता है पर जब उसे सफलता नहीं मिलती तो वह निराश हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि सम्मान पाने का मोह आदमी के लिये दुःख का कारण बनता है। एक बात याद रखें सम्मान पाने की चाह पूरी नहीं हुई तो दुःख तो होगा और अगर पूरी भी हो गयी तो अपमान भी हो सकता है। जहां सुख है वहां दुःख भी है। जहां आशा है वहां निराशा भी है। जहां सम्मान है वहां अपमान भी है। अगर सम्मान मिल गया तो चार लोग आपके दोष निकालकर अपमान भी कर सकते हैं।
इसलिये अच्छा यही है कि अपने कर्म निष्काम भाव से करें। इस संसार में निर्विवाद सम्मान पाने का बस एक ही तरीका है कि आप गरीब को धन और अशिक्षित को शिक्षा प्रदान करें। प्रयोजन रहित दया करें। ऐसे काम बहुत कम लोग करते हैं। जो सभी कर रहे हैं उसे आप भी करें तो कैसा सम्मान होगा? सम्मान तो उसी में ही संभव है जो दूसरे लोग न करते हों। वैसे भी अपने काम में निष्काम भाव से लगे रहने से उसमें सफलता मिलती है तो समाज स्वयं ही सम्मान करता है।
-----------------------
संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',Gwalioreditor-Deepak raj kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
No comments:
Post a Comment