तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति संचहि सुजान।।
कविवर रहीम कहते हैं कि जिसत तर पेड़ कभी स्वयं अपने फल नहीं खाते और तालाब कभी अपना पानी नहीं पीते उसी तरह सज्जनलोग दूसरे के हित के लिये संपत्ति का संचय करते हैं।
कहि रहीम पर काज हित, संपति संचहि सुजान।।
कविवर रहीम कहते हैं कि जिसत तर पेड़ कभी स्वयं अपने फल नहीं खाते और तालाब कभी अपना पानी नहीं पीते उसी तरह सज्जनलोग दूसरे के हित के लिये संपत्ति का संचय करते हैं।
तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर।
जल में उल्टी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर।
कविवर रहीम कहते हैं कि अपना शरीर तो कर्म के फल के नियंत्रण में है पर मन को भगवान की भक्ति में लीन रखा जा सकता है। जैसे जल में उल्टी नाव को रस्सी से खींचा जाता है वैसे ही मन को भी खींचना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-सामान्य मनुष्य स्वभाव का यह मूल स्वभाव होता है कि वह अपने लिये आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करता है पर जो दूसरे के हित का विचार करते हैं उनका उद्देश्य दूसरों का हित भी करना होता है। अपने अपने सोचने का तरीका है। कुछ लोग अपने लिये धन संचय करते चले जाते हैं यह सोचकर कि उनकी सात पीढ़ियां उनको याद करेंगीं। समाज में वैमनस्य फैल रहा है तो उसकी वह परवाह नहीं करते। गरीब के साथ अन्याय और मजदूरी के शोषण से धन संचय करने में उनको हिचक नहीं होती। वह सोचते हैं कि उनका और आने वाली पीढ़ियाों का जीवन इसी तरह ही चलता रहेगा। उनके कृत्यों से समाज में जो विद्रोह फैलता है उसकी आशंका से परे होकर वह केवल अपने स्वार्थ पूरे करने में लगते हैं। मगर जब उनके पापों और कृत्यों की अति हो जाती है तब वह उसका परिणाम भोगते हैं और कभी कभी यह दुष्परिणाम उनकी पीढ़ियों को भोगना पड़ता है। जल में उल्टी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर।
कविवर रहीम कहते हैं कि अपना शरीर तो कर्म के फल के नियंत्रण में है पर मन को भगवान की भक्ति में लीन रखा जा सकता है। जैसे जल में उल्टी नाव को रस्सी से खींचा जाता है वैसे ही मन को भी खींचना चाहिए।
समझदार मनुष्य समाज को देखभाल कर ही आगे बढ़ते हैं। मिल बांटकर खाओ की नीति अपनाकर न केवल वह अपने लिये सुविधायें जुटाते हैं बल्कि उसके उपभोग में समाज को भागीदार बनाकर यश प्राप्त करते हैं। एक बात तय है कि शरीर की आवश्यकता भौतिक पदार्थों से ही पूरी होती है अतः यह समझना चाहिये कि किसी दूसरे को भी ऐसी सुविधा देकर ही उसका हृदय जीता जा सकता है।
यह शरीर तो सांसरिक कर्म फल के अधीन है। इसकी पूर्ति के लिये भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करना जरूरी है पर भगवान भक्ति और परोपकार से जो आत्मिक सुख मिलता है उसकी अनुभूति अगर नहीं की तो यह जीवन व्यर्थ है। मन तो केवल साधनों के संग्रह में ही रहना चाहता है और उस पर नियंत्रण तभी किया जा सकता है जब हम अपने अंदर दृढ़ता पूर्वक संकल्प लेकर भक्ति तथा परोपकार के काम करें। हम जितना ही सात्विक कर्म करेंगे उतना ही हमारा मन शांत रहेगा।
............................
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://anant-shabd.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
No comments:
Post a Comment