मनुस्मृति में कहा गया है कि
---
पूजित ह्यशान नित्यं बलमूर्जं च यच्छति।
अपूजितं तु तद् भुक्तमुभूवं नाशवेदिदमफ।।
हिन्दी में भावार्थ-नित्य सम्मान की दृष्टि से भोजन करने पर मनुष्य की देह में बल और तेज बढ़ता है। भोजन करते समय उसके प्रति अपमान की दृष्टि रखने से दोनों का नाश होता है।
वर्तमान संदर्भ में लेखकीय व्याख्या-आज के विकास के दौर में जहां भौतिकीय पदार्थों के संग्रह की होड़ लगी हुई है वही अपनी ही देह के प्रति लोगों में जागरुकता कम हो गयी है। भोजन की सामग्री पाचक है या नहीं या उससे स्वास्थ्य पर अच्छा या बुरा कैसा प्रभाव होगा-इस पर लोगों ने सोचना बंद ही कर दिया है। जहां जैसे भी स्वादिष्ट भोजन मिले लोग उसे खाते हैं पर मन में खाद्य पदार्थ के प्रति कोई सम्मान नहीं होता। जीभ को स्वाद व पेट को भार दिलाना है इसी भाव से लोग खाते हैं। अनेक बार तो खाते ही कह देते हैं कि ‘खाने में मजा नहीं आ रहा है।’ खाने के बाद बड़ी बेदर्दी से कह देते हैं कि ‘खाने में मजा नहीं आया। वह नहीं जानते कि ऐसे भाव का बुरा असर कहने वाले के मस्तिष्क पर ही है जिससे खाया हुआ भोजन रसहीन तो कभी विषहीन हो जाता है। सच बात तो यह है कि अनेक बार हमारे लिये स्वादहीन भोजन स्वास्थ्यवर्द्धक तो स्वादिष्ट भोजन रोग उत्पादक हो सकता है।
हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार भोजन और जल जहां देह की जरूरत पूरी करते हैं तो अनेक बार इनका औषधि के रूप में भी उपयोग होता है। हमने देखा होगा कि हल्दी, जीरा, हींग तथा भोजन में शामिल किये जाने वाले अनेक मसाले औषधि के रूम में काम आते हैं। महत्वपूर्ण बात यह कि हम जिस अंग्रेजी जीवन पद्धति के जाल में फंसे हैं उसके अनुसार ही मस्तिष्क पर दुष्प्रभाव पड़ने से अनेक रोग होते हैं। ऐसे में हमें अपने मस्तिष्क में ही भोजन के प्रति सकारात्मक भाव रखते हुए भोजन करना चाहिये।