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Friday, October 30, 2015

कहां है चीन के विकास से सबक लेने वाले-हिन्दी चिंत्तन लेख (Chenge in China Populatain policy-Hindi thought aritcle)

                               
            चीन से विकास का सबक सीखने का उपदेश देने वाले बतायें कि आखिर चीन ने जनसंख्या नीति में हम दो हमारा एक का सिद्धांत हटाकर हम दो हमारे दो क्यों बना दिया। दरअसल उलटपंथी हमेशा ही भौतिक विकास की बात करते हैं।  वह हमेशा ही समाज मेें व्याप्त गरीबी, असमानता और भेदभाव समाप्त कर धरती पर स्वर्ग लाने का सपना बेचकर लोगों को भ्रमित करते हैं।  उलटपंथी कार्ल मार्क्स के पूंजी ग्रंथ को गीता  बताते हैं जबकि उसमें अध्यात्मिक ज्ञान का ककहरा भी नहीं है।
                                   जब तक चीन हम दो हमारे एक के सिद्धांत पर चल रहा था उसने खूब भौतिक विकास किया। यह अलग बात है कि उसका विकास बड़े शहरों से होकर मंझोले और छोटे शहरों के साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में कितना पहुंचा इसकी व्यापक जानकारी उपलब्ध नहीं है। बहरहाल अब वहां के समाज को वृद्ध प्रधान माना जाता है।  इसके विपरीत भारत अब युवा प्रधान देश हो गया है। चीन ने औद्योगिक विकास खूब किया। अपना निर्यात बढ़ाया जिससे उसकी आर्थिक शक्ति बढ़ी। अब समस्या दूसरी आयी है।  विश्व में आर्थिक मंदी आ गयी है। चीन के अनेक उत्पादन आकर्षक तथा सस्ते होने के बावजूद अधिक टिकाऊ नहीं होते।  अगर जेब में पैसा हो तो भारत के स्वदेशी उत्पादन आज भी श्रेष्ठ माने जाते हैं। चीन में लोगों की क्रय क्षमता का स्तर क्या है यह पता नहीं पर इतना तय है कि वह अपने उत्पादन  देश में खपाने में सक्षम नहीं है। मजदूरों का अभाव हो रहा है-तय बात है कि उपभोक्तओं का भी अभाव होगा।
                                   एक तरह से कहें तो समाज समाप्त ही हो गया होगा। हम समाज का यहां सिद्धांत  है कि व्यक्ति से परिवार और परिवार से समाज होता है।  जहां एक दंपत्ति के पास एक बच्चा होगा तो उसके पास भाई या बहिन नहीं होगा। पत्नी होगी पर साला या साली नहीं होगी। पति होगा पर ननद या देवर नहीं होगा।  परिवार का यह अवरुद्ध क्रम समाज के स्वरूप के विस्तार में बाधक होता है। सीधी बात कहें तो चीन एक ऐसा देश है जिसे व्यक्ति से जोड़ने वाला समाज लापता है। चीन में अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है पर संबंधों के संकीर्ण दायरों में कैद आम चीनी कैसे सांस लेते होंगे इस पर तो ढेर सारी कहानियां हो सकती हैं। कम से कम अब चीन के विकास से सबक लेने वालों को अपने उपदेश बंद कर देना चाहिये।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Saturday, October 17, 2015

ज्ञानियों के लिये मांसाहार न बुरा न अच्छा-हिन्दी चिंत्तन लेख(Gyaniyon ke liye Maansaahar n accha n bura-Hindi Spirituly article)


          इस समय हमारे देश में मांसाहार को लेकर भारी बहस चल रही है। कोई कहता है कि मांस खाना हमारे धर्म के अनुसार ठीक है तो कोई कहता है कि वह हमारे धर्म के अनुसार अपराध है। भारत के प्राचीन ग्रंथ किसी कार्य को बुरा या अच्छा नहीं कहते। उनमें किसी भोजन को वर्जित या स्वागत योग्य नहीं कहा गया है।  हमारे दर्शन के अनुसार यह संसार कर्म और फल के सिद्धांत पर चलता है।  जैसा खाये वैसा हो जाये मन’ ‘जैसा बोयेगा वैसा काटेगातथा बोये पेड़ बबूल का आम कहां से होयजैसी उक्तियां- जिन्हें हम सांसरिक सिद्धांत भी कह सकते हैं-हमें कर्म फल का सिद्धांत समझाती हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि

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यद्ध्यायति यत्कुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च।
तद्वाप्नोत्ययलेन यो हिनस्ति न किञ्चन।।
          हिन्दी में भावार्थ- जो मनुष्य किसी के साथ हिंसा नहीं करता वह जिस लक्ष्य का चिंत्तन करता है उसे अपने कर्म और ध्यान से बिना किसी विशेष कठिनाई के प्राप्त कर लेता है।
नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंस मांसमुत्पद्यते क्वचित्।
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तम्मानान्मांसं विवर्जयेत्।।
          हिन्दी में भावार्थ-मांस की प्राप्ति किसी दूसरे जीव के वध से ही संभव है लेकिन हिंसा से स्वर्ग नहीं मिलता इसलिये मांस खाने का विचार ज्ञानी को करना ही नहीं चाहिये।
           योग और ज्ञानसाधक हमेशा खान पान रहन सहन और संबंध निर्माण में हमेशा सतर्कता बरतते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि उनका प्रभाव उनकी देह, मन और विचार पर पड़ता है। श्रीमद्भागवत गीता में गुणों और इंद्रियों का सहसंबंध बताया गया है। श्री गीता के अनुसार व्यक्ति स्वयं ही अपना उद्धार कर सकता है।
          इधर हम देख रहे हैं कि हमारे देश में आत्म निर्माण की बजाय समाज सुधार का प्रचलन बढ़ा है। विदेशी विचाराधाराओं के कर्णधार समाज के दोषों के निवारण के अभियान चलाते हैं जबकि उनका स्वयं का चरित्र प्रमाणिक नहीं होता। कोई मांस खा रहा है या गलत संगत में समय गुजार रहा है यह उसकी समस्या होना चाहिये।  ज्ञानसाधक उससे संपर्क रखकर अपने अंदर उसके दुर्गण प्रविष्ट नहीं होने देता न कि उस उपदेश देकर बैर लेने का काम करता है।
          अभी हाल ही में हमने देखा कि मंास के विरुद्ध जब प्रचार चल रहा था तब कुछ मनचलों ने मांस सार्वजनिक रूप से खाकर लोकतांत्रक अधिकार के प्रदर्शन का उपक्रम किया। एक योग तथा ज्ञान साधक के रूप में हमें उन पर तरस आया।  किसी पदार्थ को खाना ही महत्वपूर्ण नहीं होता उसे पचाने के लिये पेट में संघर्ष चलता है। जिसे केवल योग साधक ही देख पाते हैं यही कारण है कि वह ऐसा सुपाच्य भोजन करते हैं जो तन मन और मस्तिष्क की इंद्रियों को व्यथित न करे।  यह बात व्यंग्यपूर्ण जरूर लगे पर फिर भी कह रहे हैं कि मांस खाने वाले शाकाहारियों के मित्र ही है क्योंकि वह अगर सब्जियां खाना प्रारंभ करें तो वह आपूर्ति नियम के अनुसार वह अधिक महंगी हो जायेंगी-वैसे भी इस समय दाल और सब्जियां मौसम की मार से महंगी हो रही हैं।  हम तो मांसाहारियों की तरीफ तब अधिक करेंगे जब वह बिना धनियां, नीबू, प्याज हरी मिर्च और प्राकृतिक मसालों के बिना भी किया करें जैसे कि शाकाहारी लोग मटर, गोभी, लौकी तथा करेला स्वास्थ्य की दृष्टि से करते हैं-इससे भी मसालों की महंगाई कम होगी।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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Thursday, October 15, 2015

दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी लेखक अपने अंदर आत्मविश्वास लाएं (Dakshinpanthi Rashtrawadi Lekhakon oa apne andar atmvishwas layen)


          अब हम उन्हें दक्षिणपंथी कहें या राष्ट्रवादी  जो अब पुराने सम्मानीय लेखकों के सामान वापसी प्रकरण से उत्तेजित हैं और तय नहीं कर पा रहे कि उनके प्रचार का प्रतिरोध कैसे करेंइस लेखक को जनवादी और प्रगतिशील लेखक मित्र दक्षिणपंथी श्रेणी में रखते हैं। मूलत हम स्वयं  को भारतीय अध्यात्मिकवादी मानते हैं शायद यही कारण है कि दक्षिणपंथी या राष्ट्रवादी लेखकों से स्वभाविक करीबी दिखती है-यह अलग बात है कि थोड़ा आगे बढ़े तो उनसे भी मतभिन्नता दिखाई देगी।  एक बात तय रही कि दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी अंतर्जालीय लेखकों से हमारी करीबी दिखेगी क्योंकि जिसे वह हिन्दू धर्म कहते हैं हम उसे भारतीय अध्यात्मिक समूह कहते हैं।  दक्षिणपंथी  या राष्ट्रवादी वैचारिक युद्ध में जनवादियों और प्रगतिशीलों जैसी रचना शैली रखना चाहते हैं जो कि पश्चिम तकनीकी पर आधारित है जो कि कारगर नहीं हो पाती।
                                   पहले तो दक्षिणपंथी  या राष्ट्रवादी लेखकों को अपने हृदय से यह कुंठा निकाल देना चाहिये कि वह जनवादी और प्रगतिशील लेखकों की तरह रचना नहीं लिख सकते। हम सीधी बात कहें नयी रचनायें होनी चहिये पर यह हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान नारे वालों के लिये बाध्यता नहीं है।  रामायण, महाभारत, भागवत, श्रीमद्भागवत गीता के साथ ही वेद और उपनिषद जैसी पावन रचनायें पहले से ही अपना वजूद कायम किये हैं। संस्कृत साहित्य इस तरह अनुवादित हो गया है कि वह हिन्दी की मौलिक संपदा लगता है।  उसके बाद हिन्दी का मध्य काल जिसे स्वर्ण काल की रचनायें तो इतनी जोरदार हैं कि प्रगतिशील और जनवादी अपनी नयी रचनाओं के लिये पाठक एक अभियान की तरह इसलिये जुटाते हैं क्योंकि हमारा पूरा समाज अपनी प्राचीन रचनाओं से भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है और सहजता से उसे नहीं भूलता।  इतनी ही नहीं आज का पाठक भी तुलसी, रहीम, कबीर, मीरा, सूर तथा अन्य महाकवियों की रचनाओं से इतना मंत्रमुग्ध है कि वह नयी रचना उनके समकक्ष देखना चाहता है।  प्रगतिशील और जनवादियोें को अपनी रचना जनमानस में लाने के लिये पहलीे पाठकों की स्मरण शक्ति ध्वस्त करना होती है इसलिये वह अनेक तरह के स्वांग रचते हैं जबकि दक्षिणपंथी  या राष्ट्रवादी लेखकों को इसकी अपनी प्राचीन बौद्धिक संपदा के होते इसकी आवश्कता नहीं होती।  आपने देखा होगा कि कहीं अगर श्री मद्भागवत कथा होती है तो वह लोग उसके श्रवण के लिये स्वयं पहुंच जाते हैं पर कहीं कवि सम्मेलन हो तो उसका विज्ञापन करना पड़ता है। हमारी प्राचीन साहित्य संपदा इतनी व्यापक है कि वह पूरे जीवन पढ़ते और सुनते रहो वह खत्म नहीं होती सांसों की संख्या कम पड़ जाती है।  प्रगतिशील और जनवादी ऐसे मजबूत बौद्धिक समाज में सेंध लगाने के लिये संघर्ष करते हुए सम्मान, पुरस्कार, और कवि सम्मेलनों का खेल दिखाते हैं। उनकी सक्रियता उन्हें प्रचार भी दिलाती रही है। इतने संघर्ष के बावजूद यह लेखक पुराने बौद्धिक किले में सेंध नहीं लगा सके यह निराशा तो उनके मन में ही थी इस पर अब उन्हें प्रचार माध्यमोें से मिलने वाला समर्थन भी बदले हुए समय में कम होता जा रहा है। प्रचार माध्यम आजकल दक्षिणपंथी  या राष्ट्रवादी विद्वानों के कथित विवादास्पद बयानों पर बहसे अधिक करने लगे हैं और प्रगतिशीलों और जनवादियों को लगता है कि यही पांच साल चला तो उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा।  मनुस्मृति के एक श्लोक और रामचरित मानस के एक दोहे का हिन्दी में अर्थ से अनर्थ कर इन लोगों ने समूची प्राचीन रचनाओं को ही भ्रष्ट प्रचारित कर पिछले साठ वर्षों से अपना पाठक समाज जुटाया जो अब इनसे दूर होने लगा है।
                                   प्रगतिशील और जनवादियों की रचनायें समाज को टुकड़ों में बांटकर देखती हैं।  पुरुष महिला, युवा बूढ़ा, गरीब अमीर, अगड़ा पिछड़ा और सवर्ण, मजदूर मालिक और बेबस और शक्तिशाली के बीच संघर्ष तथा समस्या  के बीच यह लोग पुल की तरह अपनी जगह बनाते हैं।  जनवादी रचनायें समाज में मानवीय स्वभाववश चल रहे संघर्षों में कमजोर पक्ष को राज्य या जनसंगठन के आधार पर विजयी दिखाती हैं तो प्रगतिशील  रचनायें संघर्ष तथा समस्या को कागज पर लाकर समाज या राज्य को सोचने के लिये सौंपती भर हैं। विजय या निराकारण कोई उपाय वहीं नहीं बतातीं।  भारतीय अध्यात्मिकवादी इन संघर्षों और समस्याओें को सतह पर लाते हैं पर वह समाज में चेतना लाकर उसे स्वयं ही जूझने के लिये प्रेरित करते हैं। एक अध्यात्मिकवादी लेखन के अभ्यासी के नाते हमें यह लगने लगा है कि अपने प्राचीन ज्ञान से परे रहने के कारण ही हमारे राष्ट्र में संस्कारों, संस्कृति आज सामाजिक संकट पैदा हुआ है।  अभी एक फिल्म आयी थी ओ माई गॉड। उसकी कहानी को हम अध्यात्मिकवादी रचना मान सकते हैं क्योंकि वह चेतना लाने की प्रेरणा देती है न कि समस्या को अधूरा छोड़ती है।
                                   प्रगतिशील और जनवादी सुकरात, शेक्सपियर और जार्ज बर्नाड शॉ जैसे पश्चिमी रचनाओं को समाज में लाये। उनका लक्ष्य तुलसी, कबीर, रहीम, मीरा, सूर की स्मृतियां विलोपित करना था। ऐसा नहीं कर पाये। ऐसा नहीं है कि पश्चिम में विद्वान नहीं हुए पर उनकी रचनायें वह रामायण, भागवत, महाभारत, रामचरित मानस और गुरुग्रंथ साहिब जैसी व्यापक आधार वाली नहीं हैं। इसके अलावा चाणक्य और विदुर जैसे दार्शनिक हमारे पास रहे हैं।  ऐसे में सुकरात और स्वेट मार्डेन जैसे पश्चिमी दार्शनिकों को बौद्धिक जनमानस में वैसी जगह नहीं मिल पायी जैसी कि प्रगतिशील और जनवादी चाहते थे। महत्वपूर्ण बात यह कि हमारे देश में काव्यात्मक शैली अधिक लोकप्रिय रही है। एक श्लोक या दोहे में ऐसी बात कही जाती है जिसमें ज्ञान और विज्ञान समा जाता है। गद्यात्मक रचनायें अधिक गेय नहीं रही जबकि प्रगतिशील और जनवादी इस विधा में अधिक लिखते हैं। जनवादी और प्रगतिशील भारतीय समाज के अंधविश्वास और पाखंड पर प्रहार करते हैं पर उससे बचने का मार्ग वह नहीं बताते। उनकी प्रहारात्मक शैली समाज में चिढ़ पैदा करती है। जबकि हम देखें कि यह कार्य भगवान गुरुनानकजी संतप्रवर कबीर, और कविवर रहीम ने भी किया पर उन्होंने परमात्मा के नाम स्मरण का मार्ग भी बताया।  समाज उन्हें आज भी प्रेरक मानता है। इसलिये यह कहना कि भारतीय समाज में असहिष्णुता बढ़ रही है गलत है।
                                   दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों की ताकत देश में वर्षों से प्रवाहित अध्यात्मिक ज्ञान ही है जिसके अध्ययन करने पर ही ऐसी तर्कशक्ति मिल सकती जिससे  प्रगतिशील और जनवादियों से बहस के चुनौती दी जा सके।  इस लेखक ने अनुभव किया है कि जनवादी  बहस के समय भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों के नाम से ही चिढ़ते हैं।  मनुस्मृति में उनके अवर्णों और स्त्री के प्रति अपमान ही नज़र आता है।  जबकि उसी मनुस्मृति में स्त्री के साथ जबरन संपर्क करने वाले को ऐसी कड़ी सजा की बात कही गयी है जिसकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती। जब हम ऐसे तर्क देते हैं तो वह मुंह छिपाकर भाग जाते है।  एक मजेदार बात यह कि जनवादी हिन्दू धर्म के अलावा सभी धर्मों मेें गुण मानते हैं।  यह राज हमारे आज तक समझ में नहीं आया पर अब लगने लगा है कि उनके पास भारतीय बौद्धिक समाज में पैठ बनाने के लिये यह नीति अपनाने को अलावा कोई चारा भी नहीं है।  दूर के ढोल सुहावने की तर्ज पर ही  वह पाश्चात्य विचाराधारा के सहारे अपना अस्तित्व बनाये रख सकते है।
                                   इसलिये राष्ट्रवादी विचाराधारा के लोगों अब ऐसे अध्यात्मिक अभ्यासियों को  साथ लेना चाहिये जो गृहस्थ होने के साथ ही लेखन कार्य में सक्रिय हों। पेशेवर धार्मिक शिखर पुरुषों के पास केवल ज्ञान के नारे रट्टे हुए हैं और वह आस्था पर चोट की आड़ लेकर आक्रामक बने रहते हैं।  हमने जब मनुस्मृति और विदुर के संदेश लिखना प्रारंभ किये थे तब टिप्पणीकर्ताओं ने साफ कर दिया था कि आप किसी सम्मान की आशा न करें क्योंकि आप धाराओं से बाहर जाकर काम कर रहे हैं। हम करते भी नहीं।  सच बात तो यह है कि जिस तरह देश में वातावरण रहा है उसके चलते मनुस्मृति के संदेशों की व्याख्या करने वालो को सम्मानित करने का अर्थ हैं अपने पांव कुल्हारी मारना।  हम आज भी नहीं चाहेंगे कि हमें सम्मान देकर मनुवादी होने का कोई दंश झेले पर दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी अब अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ायें-यह हमारी कामना है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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Tuesday, October 13, 2015

नवरात्रि पर्व के साथ ही वातावरण में आनंद का आगमन-हिन्दी चिंत्तन लेख(Navratriparva ke sath hi vatavaran mein Anand ka Agaman-HindiThought article)


                                   आज सुबह योगसाधना करने के दौरान बहुत समय बाद थोड़े अच्छे मौसम की अनुभूति हुई।  जब दैहिक सक्रियता अधिक करने वाले आसन करते तब तो पसीना आ जाता पर विश्राम वाले आसन के समय वह सूख भी जल्दी जाता था।  बाद में योग साधना करते करते ही जब पास पड़े अखबार पर नज़र गयी तो पता लगा कि आज से नवरात्रि प्रारंभ हो गये हैं।  हमारे मुख से निकला आह!
                                   भारती अध्यात्मिक दर्शन, धर्म, कर्म और जीवन शैली पर नाकभौं सिकोड़ने वालों को आज तक प्रचार माध्यमों में एकदम निरपेक्ष, निरापद और और निष्पक्ष माना जाता है। हालांकि ऐसे बुद्धिमानों को  न तो उन्हें योग साधना करना आती है न ही वह गीता ज्ञान का अध्ययन करते हैं इसलिये उन्हें पता नहीं कि बसंत का बंधते हैं।  आजकल एक विशेष विचारधारा के लेखक किसी अज्ञात योजना के तहत अपने सम्मान वापस कर रहे हैं।  उनका यह दुष्प्रचार है कि भारतीय धर्म, कर्म और शर्म समाज पर थोपी जा रही है।  वह कहते हैं कि भारत मे मिलीजुली धर्म संस्कृति की मान्यता ध्वस्त हो रही है। हमारा इसके विपरीत मानना है कि देश में जो विवाद हो रहे हैं  वह कर्म संस्कृति की विभिन्नता के कारण हैं और वह भी कथित बौद्धिक ठेकेदार कराते हैं।
                                   इस बार बारिश कम हुई है इसलिये वातावरण में उष्णता अधिक है। मनुष्य चाहे या नहीं वह गुणों के अधीन रहता ही है। जहां प्रातःकाल मन प्रसन्न रहता है वहीं दोपहर होते दिमाग सुस्त या तनाव में आ जाता है।  इससे मनुष्य के व्यवहार में अंतर पड़ता ही है।  भारत में बारिश कम होने से किसानों की फसलें नष्ट हुईं हैं या इतनी कम हुई कि उनके घर खर्च के लिये संकट पैदा हो गया है।  नवरात्रि प्रारंभ होने से पर्वों की श्रृंखला प्रारंभ हुई है पर पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि जनमानस में उत्साह की धारा प्रवाहित हुई हो। हालांकि दशहरा और दिवाली आते आते मौसम ठंडा हो जोयगा तब शायद लोगों के चेहरे पर चमक आती दिखे।  भारतीय पर्व वैज्ञानिक ढंग से ही बने हैं इसमें चाहे अनचाहे प्रसन्नता का भाव आ ही जाता है।
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Saturday, October 10, 2015

रूस का आईएसआईएस के विरुद्ध अभियान का मतलब-हिन्दी लेख (meaning of russian Action against ISIS-Hindi Article) ---------------------------


                                   अब यह सवाल तो उठेगा कि अमेरिका बरसों से आतंकवाद से लड़ रहा है पर फिर भी समस्या बढ़ क्यों रही हैतय बात है कि अच्छे और बुरे आतंकवाद का वह फर्क करता है।  रूस ने अरब के आतंकवादियों पर हमला कर उनकी कमर तोड़ने का अभियान शुरु किया है उसकी कार्यवाही का  अमेरिका इस आधार पर विरोध कर रहा है कि इससे सीरिया की वर्तमान सरकार के विरोधियों का नाश होगा जो उससे हथियार और दूसरी मदद पाते हैं। प्रश्न यह है कि अगर सीरिया की जनता वहां के लोगों से नाराज है तो वह स्वयं निपट लेगी। विद्रोहियों को हथियार बेचकर अमेरिका वहां बदलाव क्यों लाना चाहता है? पिछले अनेक दिनों से वहां आईएसआईएस ने आतंक फैला रखा है जिसकी लपटें पूरे विश्व में फैल रही हैं। अमेरिका और उसके सहयोगी राष्ट्रों के हमले के बाद भी आईएसआईएस का वैश्विक प्रचार बना हुआ रहा है।
                                   अब रूस की कार्यवाही के बाद लग रहा है कि वहां वाकई में आईएसआईएस की तबाही हो रही है। हालांकि रूस का इस कार्यवाही के पीछे लक्ष्य भी अमेरिका जैसा ही हथियारों का प्रदर्शन कर उनके लिये बाज़ार बनाना तथा तेल भंडारों पर स्वामित्व स्थापित करना है पर हम भारत की दृष्टि से यूं बेहतर मानते हैं कि आईएसआईएस के पतन की संभावनाओं ने यहां एक सकारात्मक वातावरण बना है। अगर रूस के हमले से भले ही अरब देशों में आतंक का पूरी तरह नाश न हो पर आईएसआईएस को मिल रहे मुफ्त प्रचार पर रोक अवश्य लगेगी। इससे विश्व खास तौर से पश्चिमी देशों में जो उसका आकर्षण फैल रहा था वह समाप्त हो जायेगा।  इतना ही नहीं हमने देखा है कि जब पश्चिम और मध्य ऐशिया में कोई धार्मिक उन्मादी संगठन आक्रामक रूप से प्रचारित  होता है तो उसके सहविचारक अन्य देशों में भी आक्रामक हो जाते हैं। पहले अलकायदा के दौर में और अब आईएसआईएस के मामले में यही होता रहा है।  आईएसआईएस का पतन उनकी इस आक्रामकता को समाप्त कर देगा।  बहरहाल हमारी दृष्टि से रूस ने एक साहसिक कदम उठाया है और उसकी पूर्ण या आशिंक सफलता आतंकवाद के एक दौर को खत्म करेगी। यह फिलहाल तय लग रहा है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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Thursday, October 8, 2015

महंगाई पर गीत लिखें कि गज़ल-हिन्दी हास्य कविता(mahangai par geet likhe ki Gazal-Hindi Comdy Poem Hindi Hasya Kavita)

महंगाई पर  गीत लिखें कि गज़ल-हिन्दी हास्य कविता
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महंगाई पर गीत रचें
या निबंध लिखें
समझ में नहीं  आता।

दस बरस से
सामानों के महंगे
रिश्तों के सस्ते होने का
दर्द गाते रहे
कोई दवा नहीं मिली
समझ में नहीं आता।

महंगाई संग देशभक्ति-हिन्दी व्यंग्य कविता
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फिक्र हमें इसकी नहीं कि
दाल के बढ़ते दाम से
हमारी जेब कट जायेगी।

दीपकबापूचिन्ता यह है
रोटी के भारी कदम से
देशभक्ति कुचल जायेगी।
.......................
हल्की जेब वाले-हिन्दी हास्य कविता
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सामान जैसे जैसे
महंगे होते गये
रिश्ते अपनी कीमत
खोते गये।

कहें दीपकबापू
बाज़ार से निकले
साहूकार सीना तानकर
हल्की जेब थी जिनकी
वह रोते गये।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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Friday, October 2, 2015

समाधि पर जाने या न जाने पर विवाद करना बेकार-हिन्दी चिंत्तन लेख(Samadhi par jane ya n jane pa vivad khada karana vyrth-Hindi thought article)


                                    कोई व्यक्ति किसी की समाधि पर जाये या नहीं, यह उसका निजी विषय है चाहे भले ही वह किसी सार्वजनिक महत्व के पद पर हो-ऐसा हमारा मानना है।                                                        एक योगसाधक मंदिर में पत्थर की मूर्ति में अपने भाव से जीवंतता का अनुभव कर सकता है पर जबकि समाधि के पास जाने से वहां मृतभाव की उपस्थिति अध्यात्मिक रूप से विचलित कर सकती है। एक योगसाधक तथा गीता के ज्ञान का अभ्यासी अध्यात्मिक रूप से तीक्ष्ण प्रकृत्ति का होता है और उसे वह लोग चुनौती नहीं दे सकते जो उस जैसे नहीं हैं। योग साधना के साथ ही नियमित रूप से गीता का अभ्यास करने वाले मंदिर और समाधि का अंतर जानते हैं इसलिये किसी के कहीं जाने या न जाने पर प्रश्न नहीं करते।
                                   श्रीमद्भागवत गीता में भक्तों के तीन प्रकार बताये गये हैं-सात्विक, राजसी और तामसी। सात्विक देव, राजसी यक्ष व राक्षस तथा तामसी प्रेतों की पूजा करते हैं। कुछ अध्यात्मिक बुद्धिमान देव से आशय भगवान के दृष्य रूप जैसे भगवान शिव, विष्णु और ब्रह्मा, यक्ष तथा राक्षस पूजा जीवित रूप में विद्यमान भगवान भक्ति में श्रेष्ठता प्राप्त मनुष्य की भक्ति  तथा प्रेत पूजा से आशय मृत्यु को प्राप्त लोगों को पूजने से मानते हैं। हम यहां भगवान राम, कृष्ण और हनुमानजी की बात करें तो इनके स्मरण में जीवंतता की अनुभूति होती है। इनकी पत्थर या धातु से बनी प्रतिमा हो या तस्वीर उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि जैसे हम उन्हें साक्षात देख रहे हैं। उस समय भक्त के भाव धातु वह पत्थर को भी  भगवत्रूप बना देते हैं।  उसी तरह समाज मेें ंसदैव ऐसे धार्मिक लोग भी रहते हैं भगवान की भक्ति का प्रचार करते हैं।  लोग भगवान की पूजा करते करते उनको भी भगवत्रूप मान लेते हैं।  यह यक्ष तथा राक्षस पूजा हो सकती है। हम यह बता दें कि राक्षस शब्द राजस और रक्षक का अपभ्रंश लगता है। राजसी व यक्ष भाव वाले सांसरिक विषयों में श्रेष्ठ पद धारण करने के लिये प्रयासरत होते हैं। वह एक तरह से समाज के रक्षक भी होते हैं-स्वाभाविक रूप से वह अपनी पूजा कराते हैं और उनके प्रभाव में आये लोग करते भी हैं। यक्ष सांसरिक विषयों में शीर्ष पर होने के साथ ही अध्यात्मिक रूप से  भी प्रबल होते हैं। यक्षों में कुबेर और राक्षसों में रावण का नाम आता है। दोनों ही भाई थे। समाधि में मृत भाव दिखता है। कुछ अध्यात्मिक  लोग इसे प्रेतपूजा भी मानते हैं जो कि तामसी भक्ति का परिचायक है।
                                   हमारी दृष्टि से किसी की भक्ति में कोई दोष नहीं है पर साथ ही किसी के मंदिर या समाधि पर जाने या न जाने पर वादविवाद करना एक बेकार का काम है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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Thursday, October 1, 2015

पाकिस्तान नेपाल व भारत पर ट्विटर सामग्री(Twitter on nepal India,and pakistan)


           हिन्दूघर्म से नाता तोड़ने के बाद नेपाल को भारत के जनमानस से सहानुभूति की आशा नहीं करना  चाहिये। चीन के इशारे पर नेपाल ने तुरुप का इक्का यानि धर्म जल्दी खोल दिया। अब उसे नया मार्ग चुनना ही चाहिये। स्पष्ट कहें तो नेपाल ने भारत के जनमानस में हृदय से अपना पवित्र स्थान गंवा दिया है। पहले जैसे संबंध अब शायद ही हों। नेपाल से भारत की तरफ से ट्रक के पहिये रुके हैं फिर चल भी सकते हैं पर मन का टूटा धागा अब नहीं जुड़ने वाला। लोकतंत्र में राजपुरुष जनता के अनुसार चलते हैं नेपाल ने भारत के जनमानस में अपना स्थान गंवाया है इसलिये अब उसे अधिक आशा नहीं करना चाहिये।उलटपंथी भगवान को नहीं मानते क्योंकि उनके मन में स्वयंगरीबों का भगवान दिखने का आत्ममुग्धता का भाव रहता है।
अब नेपाल के ट्विटरिस्ट चाहे जितना बोल लें पर सच यह है कि भारत के साथ अब उसके संबंध वैसे नहीं रहने जैसे थे। नेपाल की सुरक्षा भारत की वजह से थी उससे बिगाड़ने के बाद पाकिस्तान व चीन उसे खुश रहने देंगे यह भ्रम जल्दी टूट जायेगा।

पाकिस्तान ने ब्लूचिस्तान पर जबरन कब्जा कर रखा है, भारत यह मामला संयुक्त राष्ट्र में उठाये। ब्लोचिस्तान का पाक से कोई एतिहासिक नाता नहीं रहा इसलिये उसे वहां से हटाना चाहिये। सच यह है कि पाकिस्तान अब सऊदीअरब का उपनिवेश मात्र है जो कि धर्म के नाम पर आंतकवाद फैला रहा है।
                                   अब नेपाल के ट्विटरिस्ट चाहे जितना बोल लें पर सच यह है कि भारत के साथ अब उसके संबंध वैसे नहीं रहने जैसे थे। नेपाल की सुरक्षा भारत की वजह से थी उससे बिगाड़ने के बाद पाकिस्तान व चीन उसे खुश रहने देंगे यह भ्रम जल्दी टूट जायेगा।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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